श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. स्यमन्तक मणि
श्रीकृष्णचन्द्र उस महासभा में खड़े हुए- 'बात मेरे सम्बन्ध की है; किन्तु मेरे व्यक्तित्व को द्वारिका के प्रशासन से पृथक नहीं किया जा सकता। मेरे कृत्य का-यश-अपयश का प्रभाव पूरे प्रशासन एवं प्रजा पर पड़ता है। सत्राजित के छोटे भाई प्रसेन अश्वारूढ होकर आखेट करने निकले और लौटकर नहीं आये। सत्राजित के पास देवदुर्लभ स्यमन्तक मणि थी। उनसे मैंने वह मणि यादव सम्राट के लिये माँगी थी। उन्होंने अस्वीकार कर दिय। उस दिन प्रसेन स्यमन्तक कण्ठ में धारण करके गये थे। अब यदि सत्राजित सन्देह करते हैं कि मैंने उनके भाई को कहीं मारकर मणि ले ली है तो सत्राजित को दोष नहीं दिया जा सकता; किन्तु मुझे भी अपने पर लगे इस कलंक को दूर करने का अवसर मिलना चाहिये। आप अपने में-से एक तटस्थ धार्मिक, सम्मानित, जनों का प्रतिनिधि मण्डल चुन दें, जिन्हें साथ लेकर मैं मणि तथा प्रसेन का अन्वेषण करने जाऊँ। मैं अपने साथ जाने वाले लोगों की सुरक्षा का दायित्व लेता हूँ; किन्तु वन में अन्वेषण करना है। पथ का कष्ट सहन करना अनिवार्य होगा।' स्पष्ट- बिना किसी पर आपेक्ष किये श्रीकृष्णचन्द्र ने जो विवरण दिया, लोगों के मन का संदेह उसी से दूर हो गया। अनेक वयोवृद्ध, सम्मानित जन सत्राजित की छुद्रता पर रुष्ट हो उठे; किन्तु वासुदेव ने कहा- 'प्रसेन का क्या हुआ, यह पता लगाना प्रशासन का कर्तव्य है और स्यमन्तक कहीं किसी के पास रहे, उसके प्रभाव का लाभ संपूर्ण द्वारिका को मिलना है, अतः उसे खोया नहीं जा सकता। उसकी शोध होनी ही चाहिये।' महाराज उग्रसेन की सम्मति से द्वारिका के प्रतिष्ठित लोगों का एक दल निश्चित हुआ। इसमें यदुवंश के- विशेषतः महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाले लोग नहीं लिये गये। सत्राजित से भी साथ चलने का आग्रह किसी ने नहीं किया; क्योंकि लोगों की दृष्टि में सत्राजित का सम्मान नहीं रह गया था। वे अत्यन्त ओछे चित्त सिद्ध हुए थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने आखेट के विशेषज्ञ, वन में चिह्नों को समझने वाले दो व्यक्ति साथ लिये। प्रसेन के अश्व के पदचिह्न देखते वे चल पड़े। शेष सबको उनके पीछे चलना था। अश्व ने कहाँ मूत्र त्याग किया, मल त्याग किया, कहाँ दौड़ा, कहाँ धीरे चला, यह सब उनकी दृष्टि सहज देख लेती थी। सबको वे उन चिह्नों को दिखाते-समझाते वन में बढ़ते चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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