श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. उत्तङ्क पर अनुग्रह
वह चाण्डाल अदृश्य हो गया, मैं इतना ही जानता हूँ।' उत्तङ्क ने कहा- 'किन्तु तुमने ब्राह्मण का यह अपमान क्यों किया?' श्रीद्वारिकाधीश ने बतलाया- 'मैं आपको जल के स्थान पर अमृत देना चाहता था। इन्द्र की इच्छा नहीं है, यह समझकर ही मैं आया हूँ। उन्होंने मेरी बात तो अस्वीकार नहीं की किन्तु कह दिया कि आपको अपने ढंग से अमृत देंगे। आपने देखा नहीं ध्यान से कि उनके शरीर की छाया नहीं पड़ रही थी। देव शरीर से मूत्र पुरीषादि का उत्सर्ग नहीं होता। उस मूत्र प्रतीत होने वाले अमृत की धारा से रेणु-कण कहीं आर्द्र नहीं हुए हैं। वह तो लुप्त होता जा रहा था।' उत्तङ्क ने अब देखा कि न तो कहीं रेत पर उस चाण्डाल के पद-चिह्न है और न उसके मूत्र का ही कोई चिह्न है। यद्यपि उसको अदृश्य हुए अभी कुछ क्षण ही व्यतीत हुए हैं। उत्तङ्क का रोष, दुःख तो मिट गया किन्तु उन्होंने स्थिर स्वर में कहा- 'मेरे लिए जल की व्यवस्था पर्याप्त है। मुझे इस प्रकार भाव दोष से दुष्ट अमृत की आकांक्षा नहीं, इसके लिए सुरेन्द्र की अनुकम्पा मैं नहीं चाहता।' श्रीकृष्णचन्द्र ने विधान किया- 'अब से आप जब भी समाधि से उठा करेंगे गगन में मेघ प्रकट होकर आपके ऊपर वर्षा करके आपको स्नान करा देंगे और आपकी तृषा भी दूर कर दिया करेंगे। उन मेघों को उत्तङ्क मेघ ही कहा जायगा।' अब भी राजस्थान की मरुभूमि में कभी अकस्मात ही मेघ प्रकट होते हैं और थोड़े से भूखण्ड पर अच्छी वर्षा करके लुप्त हो जाते हैं। यद्यपि यह घटना शतियों में कभी होती हैं पर जनश्रुति में विद्यमान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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