श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. स्यमन्तक मणि
बात पहिले मन में आई और फिर मुख से निकल गयी- 'मुझसे उन्होंने मणि माँगा था। अपने लिये माँगने में संकोच लगता होगा- महाराज उग्रसेन का नाम लेकर माँगा। मैं क्या इतना भी नहीं समझता। मणि मेरे आराध्य की प्रतीक थी- कैसे दे देता मैं; किन्तु जानता कि उसके लिये भाई मारा जायेगा तो दे ही देता।' कितने भी अन्तरंग व्यक्ति से, कितने भी रहस्यपूर्ण ढंग से, कितना भी गुप्त रखने का आग्रह करके ऐसी बात कही जाय- जो बात आप स्वयं अपने भीतर नहीं पचा सके, वह दूसरे के भीतर पच जायगी? ऐसी चर्चा अपने आप प्रचारित होती है- बहुत शीघ्र प्रचारित होती है। लोक मानस ही ऐसा है कि दूसरे की दोष-चर्चा बहुत उत्सुकता से- आग्रह से सुनता और कहता है। सब दूसरे से कहते हैं- 'किसी से कहना मत, तुमसे कहता हूँ, और सब इसी प्रकार दूसरे से कहते है।' सम्पूर्ण द्वारिका में यह चर्चा कानाफूसी के रूप में फैल गयी। दासी ने रुक्मिणी जी से कहा और उन्होंने रात्रि में श्रीकृष्णचन्द्र के चरण पकड़कर रोते-रोते निवेदन किया- 'मैं यह क्या सुन रही हूँ। आपने सत्राजित से उनकी स्यमन्तक मणि माँगा था?' श्रीकृष्णचन्द्र से, महाराज उग्रसेन से वसुदेव जी से या सात्यकि से, श्रीसंकर्षण से कोई कहे ऐसी बात, यह साहस किसी में नहीं था। प्रवाद तो जनसामान्य में फैलते हैं और बढ़ते हैं। मुख्य व्यक्तियों तक उनके पहुँचने में बहुत बिलम्ब होता है। 'मैंने उनसे कहा था कि मणि वे महाराज उग्रसेन को अर्पित कर दें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सहज भाव से कहा- 'उन्होंने कह दिया कि वह उनके आराध्य का प्रतीक है, बात समाप्त हो गयी। तुमको किसने कहा?' 'कितनी स्यमन्तक मणियाँ चाहिये आपको?' -साक्षात रमादेवी रुक्मिणी उनको कैसे सहन हो कि उनके आराध्य पर कोई लांछन लगावे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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