श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. अनिरुद्ध बन्दी
वाणासुर अनिरुद्ध के सौंदर्य से पहिले ही अभिभूत हो गया था। अब उनके पराक्रम ने उसे और अधिक विस्मित किया। उसे और सैनिक बुलाने पड़े किन्तु यह घनश्याम अंग युवा केवल दण्ड लिये उसके सैकड़ों सशस्त्र सैनिकों के लिए दण्डधर यमराज बन गया था। इतनी स्फूर्ति, इतना प्रचण्ड पराक्रम। वाणासुर के मन में पुत्री के प्रति प्रशंसा का भाव जागा। उसकी इकलौती कन्या ने अपने लिए उपयुक्त पति चुना है। यह युवा स्वयं उससे आकर कन्या माँगता तो उसकी याचना विचार करने योग्य थी किन्तु इसने दैत्यराज के कन्यान्तःपुर में छिपकर प्रवेश करके मर्यादा भंग किया है। इसे दण्ड मिलना चाहिए। अनिरुद्ध को दण्ड देना सरल नहीं था। वे स्वयं इस समय दण्डधर थे और उनके दण्ड प्रहार से वाणासुर के सैनिकों के शव बिछते जा रहे थे प्रांगण में। मस्तक, भुजा, स्कन्ध, जहाँ भी जिसके अनिरुद्ध का डण्डा पड़ता था, उसका वह अंग चूर हो जाता था। रक्त की धाराएँ वहाँ उछल रही थीं और अनिरुद्ध का दण्ड वेग से घूम रहा था कि किसी का अस्त्र-शस्त्र उनको स्पर्श भी नहीं कर पाता था। वाणासुर इस युवक के पराक्रम से मन में संतुष्ट हो गया था। वह स्वयं युद्ध करने बढ़ा और उसे भी शीघ्र पता लग गया कि युवक असाधारण शूर है। उसे पराजित करना सरल नहीं है। घोर संग्राम हुआ किन्तु वाणासुर युवक को मार देना नहीं चाहता था। उसने अन्त में नागपाश में बाँध दिया अनिरुद्ध को। उषा अब तक चकित, भयभीत यह युद्ध देखती रही थी। अनिरुद्ध नागपाश के बन्धन से विवश हो गये, यह देखते ही वह व्याकुल होकर क्रन्दन करने लगी किन्तु वाणासुर ने पुत्री की ओर ध्यान ही नहीं दिया। अब महामन्त्री कुम्भाण्ड आ चुके थे। उनकी ओर देखकर वाणासुर ने पूछा इस धृष्ट युवक को मार देना चाहिए?' मन्त्री ने कहा- 'इसका पराक्रम आपने देखा है और मैंने भी देखा है। आपकी कन्या ने इसको वरण किया है। वह दूसरे के देने योग्य नहीं रही और न दूसरे को स्वीकार करेगी। यह कोई अद्भुत पुरुष है जो सर्प-बन्धन में पकड़कर भी दैत्य अथवा भयग्रस्त नहीं है। निर्भय खड़ा हमें घूर रहा है। यदि यह किसी उत्तम कुल का हो तो हमें अभीष्ट होगा। तब तो यह हमसे पूजा प्राप्त करेगा। अतः इसकी रक्षा की जानी चाहिए और इसके कुल का पता लगाना चाहिए।' 'तुम ठीक कहते हो।' अनिरुद्ध को वहीं वज्र के समान सुदृढ़ पिजड़े में वाणासुर ने बन्दी कर दिया। वहाँ दूसरे रक्षकों को दृष्टि रखने को कहकर वाणासुर चला गया। वह निश्चिन्त हो गया बन्दी की ओर से क्योंकि वह जानता था कि उसकी पुत्री स्वतः इसके आहारादि की सेवा करती रहेगी। अनिरुद्ध ने भगवती कात्यायनी का स्तवन प्रारम्भ किया। वे नन्दात्मजा योगमाया ही तो इस शोणितपुर में कोटवती देवी[1] के रूप में पूजित थीं। वे प्रकट हुई और बोली- 'वत्स! मैं इस पिजड़े को नष्ट कर देती हूँ। ये नाग तुम्हें कष्ट नहीं देंगे किन्तु तुम अभी इस स्थान से निकलो मत। भगवान श्रीकृष्ण शीघ्र आकर तुम्हें मुक्त करेंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कोटरा
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