श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
71. वाणासुर
परम भागवत प्रह्लाद जी के पुत्र विरोचन धर्ममूर्ति थे। उनके पुत्र दैत्यराज बलि में कुछ रजोगुण असुरभाव आया भी तो वह भगवान वामन का नित्य सान्निध्य पाकर नष्ट हो गया। बलि के पुत्र वाणासुर में रजोगुण का आसुर भाव तो था, प्रबल था, किन्तु तमोन्मुख न होकर सत्त्वोन्मुख था। उसमें किसी को भी उत्पीड़ित करने की, किसी का भी स्वत्व छीनने की कोई इच्छा नहीं थी। सहस्रबाहु वाणासुर पराक्रमी, बल की मूर्ति था और उसका रजोगुणी स्वभाव उसे युद्ध करने को उत्सुक बनाता था, किन्तु दिक्पाल भी उससे दया चाहते थे और वह हृदय से भला था। कहता था- 'किसी हीनवीर्य अल्प-प्राण प्राणी को पीड़ित करना अत्यन्त कदर्य काम है।' दिग्विजय करने के क्रम में जब दशग्रीव शोणितपुर पहुँचा था तब उसकी युद्ध ललकार का उत्तर भी बाण ने यही कहकर दिया था- 'मैं अल्प पराक्रम दुर्बलों को उत्पीड़ित करने का उत्साह नहीं रखता। क्षीणसत्त्व से युद्ध करके व्यर्थ श्रान्ति बढ़ती है।' रावण की शक्ति परीक्षा के लिए उसने अपने कुलपुरुष हिरण्यकशिपु का कुण्डल ला रखा और लङ्कापति उसे उठा नहीं सका था। लज्जित होकर वह लौट गया था। कोई विश्व-विजय की महत्त्वाकांक्षा नहीं थी वाणासुर के मन में, किन्तु वह युद्ध करना चाहता था। अपने समान बलवान से युद्ध करना चाहता था और समान बलवान उसे त्रिभुवन में कहीं कोई दीखता नहीं था। बल का बहुत अधिक गर्व व्यक्ति को विवेक वंचित कर देता है। अत्यधिक निकटता से गौरव-बुद्धि घट जाती है। वाणासुर को भगवान शिव का सामीप्य सदा प्राप्त था, अतः उसका व्यवहार वैसा हो गया था जैसे वयः प्राप्त पुत्र का पिता के साथ रह जाता है। वाणासुर ने एक दिन उन महेश्वर के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर सम्मुख खड़ा हो गया। बात स्पष्ट थी कि आप ही युद्ध करें। इस धृष्टता से उन त्रिपुरारि को कुछ क्रोध आया किन्तु जिसे अपना पुत्र स्वीकार कर लिया, अब उसे न मारा जा सकता, न शाप दिया जा सकता। कुपुत्र पर भी माता-पिता कृपा ही करते हैं। वाणासुर ने इसे वरदान माना। वह बहुत उत्कण्ठापूर्वक अपने भवन का ध्वज प्रतिदिन दिन में कई-कई बार देखता था। वह ध्वज कब टूटे और कब उसे युद्ध का अवसर मिले, इसकी प्रतीक्षा कर रहा था वह। मल्लयुद्ध करने वाले पहलवानों को ही इस मनोवृत्ति का अनुमान होना संभव है। अखाड़े में उन्हें प्रतिदिन पूरा बल लगाने का अवसर मिलना चाहिए। उचित प्रतिद्वंद्वी न मिले तो मन में एक प्रकार की बेचैनी, भुजाओं में खाज होती है। भले मल्लयुद्ध में हारना पड़े किन्तु अवसर अवश्य मिले। यही अवस्था वाणासुर की थी और एक दिन उसने प्रसन्न होकर देखा कि उसके भवन पर लगा ध्वज-दण्ड टूटकर गिर पड़ा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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