श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. रुक्मी-वध
बड़े उत्साह से रुक्मी ने बारात का स्वागत किया। खूब धूम-धाम से विवाह संपन्न हुआ। रुक्मी ने दहेज देने में, संबंधियों को सत्कृत करने में कोई कार्पण्य नहीं किया। विवाह कार्य पूर्ण हो गया तो रुक्मी ने मित्र राजाओं ने उसे सम्मति दी- 'अन्ततः यादव आपके शत्रु ही हैं। अब ये संबंधी हो गये हैं, अतः इनसे युद्ध उचित नहीं रह गया है, किन्तु इन्हें पराजित करने, अपने अधीनस्थ बनाने की एक युक्ति और है।' रुक्मी अपने अपमान को भूला नहीं था। यदि अपने संबंधी प्रद्युम्नादि से युद्ध न करना पड़े और बलराम श्रीकृष्ण को नीचा दिखाया जा सके तो वह ऐसा अवसर अवश्य चाहता है। उसने उत्साह-पूर्वक वह उपाय जानना चाहा। 'उपाय तो वही है जो पांडवों को राज्य से निर्वासित करने के लिए शकुनि की सहायता से दुर्योधन ने अपनाया था।' रुक्मी ने यह उपाय अच्छा लगा। इस उपाय का परिणाम- 'जो विनाश हुआ था, वह इसके साथ लगा आयेगा, इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। क्योंकि- 'विनाशकाले विपरीत बुद्धिः।' आप हम आप कुछ भी कहें, प्रत्येक काल में, समाज में कुछ प्रथाएँ चलती हैं। उनमें सभी अच्छी नहीं होती; किन्तु सत्पुरुष भी उन प्रथाओं का विरोध नहीं कर पाते। वे भी समाज के अनुकूल ही चलते हैं। उस काल में जैसे युद्ध का आह्वान अस्वीकार कर देना वीर के लिए अपयश की बात मानी जाती थी, यद्यपि यह सदा उचित नहीं होता, वैसे ही द्यूत का आह्वान अस्वीकार कर देना भी अपयश की बात मानी जाती थी। राजाओं तथा राजपुरुषों के लिए शस्त्र-कुशल होने के समान अक्ष-क्रीड़ा कुशल होना भी सद्गुण माना जाता था। इसी प्रथा के कारण युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा को विवश हुए थे। रुक्मी ने भी यही उपाय अपनाया। रुक्मी की ओर से भगवान बलराम को अक्ष-क्रीड़ा का आमन्त्रण दिया गया। वे अकेले ही राजसदन में पधारे। रुक्मी के मित्र नरेश वहाँ एकत्र थे। उन्हीं लोगों को रुक्मी ने निर्णायक निर्णीत कर दिया। इस क्रीड़ा के पीछे कोई षडयन्त्र भी है, इससे बलराम जी सर्वथा अनजान थे। अष्टापद बिछ गया और पासे पड़ने लगे। सौ स्वर्ण मुद्रा से दाव प्रारंभ हुआ। बलराम जी ने दूसरा दाव सहस्र स्वर्णमुद्रा का लगाया और तीसरा दाव दस सहस्र स्वर्ण मुद्रा का। तीनों दाव रुक्मी जीतता गया। जब भी रुक्मी जीतता था, उसके सभी समर्थक ताली बजाकर हँसते-उछलते थे। कलिंगराज जयत्सेन दाँत दिखाकर हँसते हुए श्रीबलराम जी की खिल्ली उड़ा रहे थे। लेकिन श्रीसंकर्षण रुक्मी की जय से तनिक भी हतभ्रम या रूक्ष नहीं हुए। उन्होंने भी प्रसन्नता ही प्रकट की और चौथा दाव श्रीबलराम ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा का लगाया। पासा पड़ा और इस बार श्रीसंकर्षण जीते थे, किन्तु रुक्मी ने शीघ्रतापूर्वक पासा उठा लिया और चिल्लाया- 'मैं जीता।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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