श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. श्रीबलराम की तीर्थयात्रा
कोई ऋषि-मुनि कुछ कहे, कुछ बोले कोई उठे, इससे पहिले ही श्रीबलराम जी ने अपने हाथ से कुश को फेंककर सूत को मारा। जिनका संकल्प ही सृष्टि को प्रलय के गर्भ में फेंक देने के लिए पर्याप्त होता है उनके हाथ से कुश का आघात वज्र के आघात से कम कहाँ था। कुश लगते ही रोमहर्षण का शरीर निष्प्राण होकर व्यासासन पर ही लुढ़क गया। 'हाय! अनर्थ हो गया।' समस्त ऋषि-मुनि चीत्कार कर उठे। अब श्रीबलराम चौंके। उन्हें लगा कि उनसे कुछ अनुचित हो गया है। उन्होंने ऋषियों से पूछा- 'क्या बात है?' 'हम लोगों ने आग्रह करके इन्हें ब्रह्मासन दिया था।' 'आप सर्व समर्थ हो। योगेश्वर हो। कोई कल्मष आपका स्पर्श नहीं करता। आप लोकपावन हो। आपके स्मरण से मनुष्य कल्मषरहित हो जाते हैं।' 'प्रायश्चित्त मैं करूँगा।' श्रीबलराम जी ने बिना किसी हिचक, संकोच के कहा- 'लोक पर अनुग्रह करके मुझे प्रायश्चित्त करना ही चाहिए। बिना संकोच के आप सब प्रथम कल्प का- उत्कृष्ट प्रायश्चित्त विधान करें।' 'आपके सत्र में बाधा न पड़े, इसलिए मैं इनको दीर्घायु, इन्द्रिय शक्ति देकर जीवित कर देता हूँ।' भगवान संकर्षण ने कहा- 'साथ ही आप सब और जो सेवा बतलावें उसे भी संपन्न कर दूँगा।' आपका अस्त्र अमोघ है। आपका संकल्प व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। इनकी मृत्यु का समय भी आ गया था।' महर्षि ने कहा- 'इस मर्यादा की रक्षा भी हो और हम लोगों के कार्य में भी विघ्न न पड़े, ऐसा प्रबंध करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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