श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
रुक्मी को बन्धन मुक्त कर दिया। वह मस्तक झुकाये लौट पड़ा। एक शब्द नहीं बोला वह। अब बोलने को रहा भी क्या था। श्रीकृष्णचन्द्र भी सिर झुकाये बड़े भाई की झिड़की सुनते रहे। 'वधू! तुम कुछ दूसरा मत समझना!' रुक्मिणी की ओर देखे बिना ही उन नीलाम्बर धारी ने कहा- 'क्षत्रियों का धर्म ही बड़ा निष्करुण है। युद्ध में सम्मुख आने पर भाई भी भाई को मार देता है। इसमें जो कुछ हुआ- उसे भूल जाओ।' रुक्मिणी जी संकोच से सिकुड़ गयी थीं। 'अग्रज इतने स्नेहमय हैं और ये इतना सम्मान करते हैं जगदीश्वर होकर भी बड़े भाई का।' इस शील-स्नेह ने उनको आश्वस्त किया, आप्लावित किया। श्रीसंकर्षण के संकेत पर दारुक ने रथ बढ़ा दिया। यादव महारथियों के रथ बढ़े आ रहे थे। अनन्त पराक्रम भगवान संकर्षण संरक्षक बने साथ चल रहे थे और अब शत्रु थे ही कहाँ। अब तो वह वाद्यों का तुमुल नाद करती बारात वधू को लेकर लौट रही थी। रुक्मी को कुछ दूर ही पैदल चलना पड़ा। श्रुतर्वा अपना रथ बढ़ा लाया। उसने आग्रह करके रुक्मी को रथ में बैठाया- 'आपकी ही राजधानी है मेरा नगर भी आपको कुण्डिनपुर नहीं जाना तो वहाँ पधारें।' रुक्मी उसके साथ उसके नगर में गया। दूसरे ही दिन उपयुक्त स्थान ढूँढ़कर उसने नवीन नगर की नींव डाली। उस नगर का नाम रखा गया भोजकटपुर। रुक्मी अपनी राजधानी इसे बनाकर दक्षिणात्य प्रदेश का शासन करने लगा। उसके पिता महाराज भीष्मक और शेष भाई कुण्डिनपुर में ही रहे। शिशुपाल तथा साथियों को लेकर मगधराज लौट चुका था। विदर्भ में कोई भी खिन्न नहीं था। महाराज भीष्मक को चिंता थी; किन्तु रुक्मी के बच जाने से वे संतुष्ट हो गये थे। वहाँ उत्सव मनाया जा रहा था - मानो उन्होंने कन्या-दान ही किया हो। द्वारिका में श्रीकृष्ण का विवाहोत्सव- इस रुक्मिणी-कल्याण महोत्सव का वर्णन सम्भव नहीं है। कन्या के लिये जो दहेज कुण्डिनपुर नरेश ने पहिले से सजाया था, उसे बहुत अधिक करके उन्होंने द्वारिका भेजा। बहुत-बहुत विनम्र प्रार्थना महाराज की लेकर उनके सेवक वह अपार दहेज ले आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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