श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
62. कुशेश्वर
'अपराध सही, किन्तु उसे आप अनन्त कृपासिन्धु क्षमा नहीं करेंगे तो दूसरा कोई कैसे क्षमा करेगा।' श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रार्थना की- 'अब आप इस कुशस्थली में अपना स्थायी निवास बना लें। हम सबको आप कुशेश्वर के नित्य-सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त हो। यादवों को आपके चरणार्चन के लिए कभी कैलास, कभी गोकर्ण क्षेत्र की यात्रा अनिवार्य नहीं होनी चाहिए।' 'मैं स्वयं आज यही कहने आ रहा था कि मुझे अपने इस नित्यवास में थोड़ा-सा स्थान दे दो।' जहाँ श्रीविग्रह ही दो हैं, तत्त्व केवल एक अद्वय है, वहाँ दोनों और एक साथ ही संकल्प का उठना ही स्वाभाविक है। 'आपकी अर्चा किये बिना द्वारिका में मेरा दर्शन या अर्चन सम्पूर्ण नहीं होगा।' श्रीद्वारिकाधीश ने उसी समय यह नियम स्वीकार कर लिया और भगवान शिव उसी दिन से द्वारिका में कुशेश्वर दिव्य लिंगमूर्ति के रूप में विराजमान हुए। द्वारिका नित्यधाम है। नित्य निवास है वहाँ श्रीहरि का और उनसे सदा अभिन्न हर का भी, किन्तु जैसे नित्य भगवान की लीलाओं का आविर्भाव-तिरोभाव होता है, तीर्थों का भी आविर्भाव-तिरोभाव ही होता है। द्वारिका में सात्यकि की प्रार्थना के बहाने कुशेश्वर का आविर्भाव ही हुआ। भगवान महेश्वर के उस दिव्यलिंग श्रीविग्रह के आविर्भाव के उपलक्ष में द्वारिका में उसी दिन महोत्सव प्रारंभ हो गया। अखण्ड सहस्रधारार्चन तथा माहेश्वर महायज्ञ महर्षियों ने महाराज उग्रसेन के अनुरोध से प्रारंभ करा दिया। द्वारिका में भगवान नारायण का मंदिर पहिले से ही था। अब भगवान शङ्कर का भव्य मंदिर-प्रतिष्ठित हुआ। नगर से बाहर भगवती अम्बिका अपने देवालय में पहिले ही विराजमान थीं और गणेश जी की अग्रपूजा के बिना तो कोई यज्ञादि होता ही नहीं। सत्राजित पहिले सूर्योपासक थे, उनके पश्चात साम्ब सूर्यभक्त हुए तो उन्होंने सूर्य का मंदिर स्थापित किया। इस प्रकार द्वारिका में पंचदेव प्रतिष्ठित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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