श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. साम्ब की सूर्योपासना
जिनको भी कभी श्वेतकुष्ट के रोगी को प्रारंभिक काल में देखने का अवसर मिला है वे जानते हैं कि यह रोग कितनी मानसिक व्यथा उत्पन्न करता है। यद्यपि इसमें कोई पीड़ा नहीं होती, किन्तु ग्लानि बहुत होती है। रोगी अपना वह अङ्ग जो श्वेत हो गया है किसी की भी दृष्टि में आने नहीं देना चाहता किन्तु साम्ब के मुख पर भी पर्याप्त भाग था श्वेतकुष्ट का। वे उसे छिपाने की स्थिति में भी नहीं थे। जो द्वारिका में अपने को सबसे सुन्दर समझता था और सचमुच था, उसको श्वेत कुष्ठ होने से कितनी मनोव्यथा हुई होगी इसे समझना कठिन नहीं होना चाहिए। श्रीकृष्ण के शाप से उत्पन्न रोग को कल्पवृक्ष तो दूर नहीं कर सकता था, उसकी कोई औषधि भी संभव नहीं थी। साम्ब अपने अन्तःपुर में अपनी पत्नियों के सम्मुख भी जाने का साहस नहीं कर सके। वे एकान्त कक्ष में अपने को बन्द करके बैठ गये। उनकी पत्नी काश्या ने देवी जाम्बवती से प्रार्थना की। उन्होंने स्पष्ट कह दिया- 'मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ। मैं उनकी चरण-सेविका, उनके सम्मुख मैं क्या कहूँगी। लेकिन वह बड़ो की शरण ले तो कोई मार्ग निकल सकता है।' साम्ब को शैशव से ही श्रीबलराम का अत्यन्त स्नेह प्राप्त हुआ था। उन संकर्षण ने ही उसे शस्त्र शिक्षा दी थी। पत्नी के द्वारा माता का संदेश मिला तो साम्ब ने रात्रि में जाकर उन सबके आश्रय एवं जीवमात्र के आद्याचार्य के सम्मुख भूमि पर सिर धर दिया और फूट कर रो पड़ा- 'अब मैं आपके चरणों के स्पर्श के योग्य भी नहीं रहा। मुझे अनाहार द्वारा देह-त्याग की आज्ञा दे दें।' "किसने कहा कि तुम मेरा स्पर्श नहीं कर सकते।" वे परमाचार्य ही जीव के दोष-दुर्गुण देखने लगें तो आर्तप्राणी फिर किससे अभय की आशा करेगा। उन अनंत दयाधाम ने अंक में खीचं लिया साम्ब को- "तुम्हें इतना समझना चाहिए कि शरीर का सौंदर्य नश्वर है, महत्त्वहीन है और इसका अभिमान अनिष्टकारी है। तुम्हारे पिता तुम्हें यह समझाना चाहते थे। देहत्याग की आवश्यकता नहीं होगी। श्रीकृष्ण के स्वभाव में ही रोष नहीं है। वे तो कृपा करते हैं रोष के भी मिस से। मैं कल उनसे कहूँगा।" "तुम्हीं दण्ड देने लगोगे तो अज्ञ बालकों को क्षमा कौन करेगा?" श्रीबलराम जी ने प्रातःकाल मिलते ही छोटे भाई को उलाहना दिया- 'जीव के कर्म देखना तुमने कब से प्रारंभ किया? तुम्हारा काम तो क्षमा करना, अपनाना, आश्रय देना मात्र है तुम्हारे स्वरूप में दण्ड कहाँ से आ गया?" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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