श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. अश्वमेध-यज्ञ
'अनिरुद्ध ने अश्व को प्रणाम किया- 'आप लौटें। अश्व वहाँ से सीधे द्वारिका की ओर चल पड़ा। उद्धव पहिले समाचार देने को भेजे गये। महाराज उग्रसेन, श्रीकृष्ण-बलराम आदि सभी महर्षिगणों के साथ अश्व के स्वागत को नगर से बाहर आये। महाराज उग्रसेन के इस अश्वमेध यज्ञ में भगवान व्यास स्वयं आचार्य बने। महर्षि बकदाल्भ्य अध्वर्यु (ब्रह्मा) थे। अन्य ऋषिगण ऋत्विक हुए। व्यास जी की आज्ञा से चौंसठ दंपति गोमती का जल लाने गये। इसमें वसुदेव जी, बलराम, श्रीकृष्णचन्द्र अपनी प्रमुख पत्नी के साथ गये, महर्षिगणों में कश्यप देवमाता अदिति के साथ जल लेने गये। जल आया- यज्ञ प्रारंभ हुआ। देवताओं ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर अपना भाग स्वीकार किया। यज्ञान्त में द्विमूर्धा सप्तजिह्व अग्निदेव ने प्रकट होकर कहा- 'मैं प्रसन्न हूँ। अब मुझे पशु प्रदान करो।' महाराज उग्रसेन उठे। उन्होंने निर्बन्ध पूजित अश्व के चरणों में मस्तक रखा। हाथ जोड़कर बोले- 'अश्व! अग्निदेव की बात सुनो। आहुतियों से तृप्त होने पर भी अब वे तुम्हें आहार बनावेंगे। अश्व प्रसन्नतापूर्वक हिनहिनाया। उसने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। जैसे ही उसकी बलि हुई उसकी शरीर से एक ज्योति निकली और श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो गयी। अश्व का पूरा शरीर तथा मस्तक श्वेत घनसार[1]का होकर गिर पड़ा। उस कर्पूर की आहुति अग्नि में समस्त देवताओं के निमित्त दी गयी। पिण्डारक तीर्थ में ही जहाँ यह यज्ञ हुआ था, गोमती-सागर सङ्गम में सबने अवभृथ स्नान किया। भरपूर दान-दक्षिणा ऋषियों को दी गयी। समस्त आगतजन उपहार देकर सत्कृत किये गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्पूर
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