श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
जरासन्ध कह रहा था- 'फिर भी न शोक करता हूँ, न हर्षित हूँ।' 'अब इस बार हम सब वीरों के यूथप एकत्र थे। सब सदल थे। सबने सम्पूर्ण शक्ति लगा दी, किन्तु हम हार गये। श्रीकृष्ण के द्वारा पालित, अल्पसाधन वाले यादवों से हार गये और शत्रु विजयी हो गये; क्योंकि काल हमारे विपरीत तथा उनके अनुकूल था। हम विजयी होंगे- विजयी होकर रहेंगे; किन्तु जब काल हमारे अनुकूल होगा। तुम धैर्य धारण करो। मैं इसी मास तुम्हारा विवाह करूँगा।' जरासन्ध ने केवल धैर्य ही नहीं दिया, वहीं उसने मित्र नरेशों में-से एक की कन्या का वरदान शिशुपाल के लिए ले लिया। 'महामनस्वी रुक्मी का क्या हुआ?' कठिनाई से शिशुपाल ने कहा। रुक्मी उसका मित्र है, सहायक है। उसी के स्नेह के कारण श्रीकृष्ण का विरोधी हुआ। 'वे प्रतिज्ञा कर गये हैं कि विजयी हुए बिना मैं कुण्डिनपुर नहीं लौटूँगा। 'जरासन्ध ने दक्षिणात्य नरेशों को तत्काल भेज दिया। उन लोगों का एक समूह पहिले ही राजकुमार रुक्मी के पीछे चल पड़ा था। 'श्रीकृष्ण ने राजकन्या का हरण कर लिया।' यह समाचार जब रुक्मी को मिला, वह जरासन्ध के समीप ही था। वह निश्चिन्त था- 'सब राजाओं की सन्नद्धता का उपहास करता था। उसे लगता ही नहीं था कि उसके रहते यादव ऐसा दुस्साहस करेंगे। कन्या-हरण सुनते ही वह क्रोध से काँपने लगा। उसने सब राजाओं के सम्मुख प्रतिज्ञा की- 'मैं अपने इस धनुष को छूकर शपथ लेता हूँ कि कृष्ण को युद्ध में मारकर अपनी बहिन को लौटा लाऊँगा, तभी इस नगर में आऊँगा, अन्यथा कुण्डिनपुर में मुख नहीं दिखाऊँगा।' एक अक्षौहिणी सेना रुक्मी के साथ थी। वह साथ चली भी; किन्तु वह सेना तो यादव वीरों ने घेरकर समाप्त कर दी। रुक्मी ने सारथी से कहा था- 'इन छुद्र यदुवंशियों के दल को छोड़कर रथ बढ़ाओ। शीघ्र कृष्ण के पास चलो। उस दुर्मति गोपकुमार का घमण्ड आज मैं अपने बाणों से चूर्ण कर दूँगा। उसका इतना साहस कि मेरी बहिन को बलात उठा ले चला वह।' 'रुक! एक क्षण रुक!' गरुड़ध्वज रथ दीखते ही रुक्मी पूरे बल से चिल्लाया- 'मेरी बहिन को लेकर तू कहाँ जा रहा है। यदि जीवित रहना चाहता है तो इस बच्ची को तुरन्त रथ से उतार दे, नहीं मैं अभी अपने तीक्ष्ण बाणों से मार दूँगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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