श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
श्रीसंकर्षण प्रलयंकर बन गये थे। वे जो भी वृक्ष पास मिलता, उखाड़कर शत्रुसेना पर पटकते जा रहे थे। रथ, गज, अश्व, पदाति जो सामने पड़ गया, उसका शव भी पहिचानने योग्य नहीं रह गया। श्रीकृष्णानुज गद ने रथ त्याग किया और गदा लेकर शत्रु-सेना में घुस पड़े। उनकी गदा प्रलय करने लगी। जरासन्ध आदि कइयों ने गद को घेर लिया; किन्तु तभी श्रीबलराम अपना प्रज्वलित मुशल उठाये आ पहुँचे उनका पहिला ही आघात दन्तवक्र के मुख पर हुआ और उसका टेढ़ा दाँत टूटकर गिर पड़ा। उसके मुख से रक्त की धारा चलने लगी। मुशल ने बंगराज की कपाल-क्रिया कर दी। गरुड़ध्वज रथ वेग से द्वारिका की दिशा में जा रहा था; किन्तु रुक्मिणी की दृष्टि पीछे लगी थी। इतने नरेश- इतनी भारी उनकी सेना- अब मन में आशंका उठी। द्वारिका के शूरों का समूह एकत्र होकर मार्गावरोध बन गया था; किन्तु शत्रुओं की बाण-वर्षा में ढ़क गया यह समाज। रुक्मिणी भय से व्याकुल हो उठीं। उन्होंने लज्जापूर्ण, भयव्याकुल नेत्र पति की ओर उठाये। दृष्टि ने कहा- 'अपने तो सब घिर गये। संकट में हैं। अपका शांरग या चक्र......' श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े- 'डरो मत! तुमने कोई युद्ध भला क्यों देखा होगा। शत्रुओं की सेना तुम्हारे अपनों के लिए बहुत तुच्छ है। वे कुछ क्षणों में ही शत्रुओं का नाश कर देंगे।' आश्वासन पर्याप्त नहीं होता; किन्तु शत्रुदल सचमुच छिन्न होने लगा। वह सैनिकों का उमड़ता आता मेघ रुका, छिन्न-भिन्न हुआ और अदृश्य हो गया। रथ वेग में बढ़ता न होता तो रुक्मिणी सैनिकों, गजों, अश्वों का क्रन्दन, उनके शवों की राशियाँ, कटेफटे अंग- रक्त की बहुत दूर तक फैलकर बहती धार बहुत विचलित करती। यह दृश्य उनके देखने योग्य नहीं था। जरासन्ध के साथ आये प्रायः सब सैनिक मारे गये। उसके साथ के राजाओं में भी कई मारे गये, कुछ घायल हुए। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण के साथ युद्ध में सेना मरने लगे तो भागने में ही कुशल रहती है- यह पाठ तो मगधराज तक बहुत पहिले सीख चुका था। अतः वे सब युद्ध क्षेत्र से पीछे भागे और कुण्डिनपुर अपने शिविर में आ गये। यादवों को उनका पीछा नहीं करना था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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