श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. दिनचर्या
मध्यरात्रि में यह अन्तःपुर का समाज अनिच्छापूर्वक ही विसर्जित होता है क्योंकि शयन के लिए रात्रि का तृतीय प्रहर ही है और यही अवसर दम्पत्ति के एकान्त-मिलन का भी है। उपासना, सन्ध्या, हवन, तर्पण, जप के अतिरिक्त श्रीकृष्णचन्द्र के आह्निक[1] सब कृत्यों में व्यवधान के लिए अवसर है और ऐसा व्यवधान प्रायः पड़ता रहता है क्योंकि उन भक्तवत्सल को कोई अभीप्सु अथवा आर्तभक्त कब पुकारने लगेगा, इसका कोई नियम नहीं और किसी को प्रेम भरी पुकार अनसुनी कर देना स्वयं श्रीकृष्ण के ही वश में नहीं। द्वारिका में कोई ऋषि-महर्षि, तपस्वी कब आ जायेंगे इसका भी कोई नियम नहीं। ये आते ही रहते हैं और श्रीकृष्णचन्द्र के ही दर्शन करने तो सब आते हैं। ये ब्रह्मण्यदेव सब छोड़कर दौड़ेंगे और आगत का सत्कार सविधि पूजन करने में लग जायेंगे। तब इन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रहेगी। इतने पर भी श्रीकृष्णचन्द्र के सब आह्निक कृत्य यथोचित सम्पन्न होते हैं। अतिथि, ब्राह्मण, विप्र, गुरुजन, स्वजन ही नहीं- प्रजा, पशु-पक्षियों तक को उनका प्रतिदिन का स्नेह सत्कार निर्बाध प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दैनिक कार्य अथवा दिन भर का
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