श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. मिथिला-यात्रा
श्रुतदेव की कुटिया के द्वार पर भी गरुड़ध्वज रथ आकर रुका था। महर्षियों के साथ श्रीकृष्णचन्द्र उतरे तो श्रुतदेव आनन्द के मारे अपना उत्तरीय फहराते नृत्य करने लगे। उन्हें भूल ही गया कि उन्हें आगतों का स्वागत करना है। उन्हें आसन देना है। श्रीकृष्ण का अपना घर है उनके अकिंचन अनन्य भक्त का आवास। यहाँ स्वागत की अपेक्षा कहाँ। स्वयं द्वारिकाधीश ने कुछ कुश के आसन, काष्ठपीठ, चटाई ढूँढी और बिछाकर महर्षियों को उन पर बैठाया। स्वयं बैठकर कीर्तन करते मुग्धनेत्र श्रुतदेव का वह प्रेमोन्माद में नृत्य करना देखते रहे। श्रुतदेव सावधान हुए तब उन्हें पूजन-सत्कार का ध्यान आया। कुटिया में शीतल जल था, उसमें खस डालकर सुगन्धित कर दिया। तुलसीदल, पुष्प, चन्दन और नैवेद्य के लिए थोड़े फल-कन्द जो उनके समीप थे। श्रुतदेव भक्ति विह्वल, उन्हें इतना वाह्य ज्ञान फिर भी नहीं हुआ कि पूजन में क्रम रह सके। वे यह भी भूल गये कि वहाँ ऋषिगण भी बैठे हैं। उन्हें अपने शरीर का ही ध्यान नहीं। केवल श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णमय तन-मन-प्राण। अब उन्हें तो श्रीकृष्ण ही दीखते हैं। श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ है भी तो नहीं। वही तो सर्वमय, सर्वरूप हैं और जब वे स्वयं सम्मुख है, दृष्टि में दूसरा रूप न आवे तो क्या आश्चर्य। श्रुतदेव श्रीकृष्ण का अर्चन स्तवन करने में तन्मय। यह देख श्रीकृष्णचन्द्र ही बोले- 'ब्रह्मन! ये महर्षिगण आप पर ही कृपा करने आये हैं। ये मेरे साथ मुझे अपने हृदय में लिये सम्पूर्ण लोकों को अपनी चरण-रेणु से पवित्र करते घूमते हैं। मुझे ब्रह्मज्ञानियों से अधिक प्रिय अपना यह चतुर्भुज स्वरूप भी नहीं है। अतः मुझसे अभिन्न मेरे स्वरूप समझकर आप इन महर्षियों का अर्चन करें। इनकी पूजा से ही मेरी सम्यक पूजा होती है।' श्रुतदेव चौंके- 'आप सब मुझ अज्ञ का अपराध क्षमा करें।' महर्षियों के चरणों पर मस्तक रखकर क्षमा माँगी उन्होंने। ऋषिगण सुप्रसन्न थे। उन्हें तो इन वीतराग भगवद्भक्त का प्रेम ही प्रसन्न किये था। श्रुतदेव ने अब सबके चरण धोये। अक्षत, चन्दन, पुष्प से सबकी पूजा की। सबने उनके फल-कन्द का बड़े उत्साह से भोग लगाया। जल पिया। श्रुतदेव को सन्तुष्ट करके, भक्ति का वरदान देकर श्रीकृष्णचन्द्र ऋषियों के साथ रथ में बैठे द्वारिका जाने के लिए। अब यह मत पूछिये कि श्रीकृष्णचन्द्र श्रुतदेव के यहाँ केवल एक दिन कुछ घण्टे रहे और महाराज बहुलाश्व के यहाँ एक महीने। दोनों को लगा कि उनके ही यहाँ आये, उन्हीं से मिलकर द्वारिका चले गये। यह दो स्थान, दो रूप और काल का अन्तर कैसा? योगमाया ही देश-काल की कल्पना की मूल हैं। श्रीकृष्ण की यह योगमाया अचिन्त्य हैं, केवल यही स्मरण रखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज