श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. मिथिला-यात्रा
सबसे प्रत्यक्ष चमत्कार मिथिला में होना था। श्रीकृष्णचन्द्र के आगमन का समाचार मिला तो मिथिला के सब लोग स्वागत के लिए दौड़ पड़े। महाराज बहुलाश्व के आनन्द का, उत्साह का वर्णन असम्भव है। महर्षि याज्ञवल्क्य तक जहाँ शिष्यों के साथ अर्ध्य उठाये आनन्दविह्ल दौड़ पड़े हों, वहाँ महाराज अथवा सामान्यजन की दशा कैसे कही जाय। स्वागत हुआ और महाराज राज-भवन पधारने की प्रार्थना करने बढ़े, उन्हें लगा कि ये सर्वेश्वर मुझ पर अनुकम्पा करके ही यहाँ पधारे हैं। महाराज की श्रद्धा, प्रतीक्षा आज सफल हुई किन्तु महाराज के साथ ही दुर्बल देह, जीर्णवसन, ब्राह्मण श्रेष्ठ श्रुतदेव भी बढ़े श्रीद्वारिकाधीश से अपने उटज[1] में पधारने की प्रार्थना करने। श्रुतदेव वेद-वेदांग के पारंगत पण्डित तो थे ही वीतराग भगवद्भक्त थे। गृहस्थ थे इसलिए कि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य अथवा वानप्रस्थ का संकल्प नहीं लिया था किन्तु थे एकाकी और मिथिला में उनकी एक ओर नगर से बाहर एकान्त में एक पुरानी तृण कुटीर थी। महाराज बहुलाश्व या कोई भी सम्पन्न नागरिक साहस नहीं कर पाता था उन तपोधन से कुछ द्रव्य-दान स्वीकार करने की प्रार्थना करने का। उनकी कुटिया पर अकेली गौ तक नहीं थी। कुछ पुराने कुश के आसन, काष्ठ पीठ, तुम्बी के कमण्डलु, दो-एक साधारण पात्र, बस यही उपकरण थे उस कुटी में और श्रुतदेव जी का नियम था कि भिक्षा स्वयं ले आते थे। एक दिन एक समय का शरीर निर्वाह हो जाय इससे अधिक भिक्षा लेना उन्हें स्वीकार नहीं था। इसमें भी प्रदोष, एकादशी आदि व्रत आते रहते थे। श्रुतदेव मिथिला में सबसे अकिंचन किन्तु त्याग, अपरिग्रह, सन्तोष, विद्या के ही नहीं, भगवद्भक्ति के भी सबसे बड़े धनी। वे अनन्य भक्त, परिपूर्ण काम। उनको लगा ये निखिल ब्रह्माण्ड नायक निष्किंचन जनप्रिय उन्हीं को कृतार्थ करने मिथिला पधारे हैं। उनको ठीक नहीं लगा, यह कहने का साहस कौन करेगा। वे दीनबन्धु अकिंचनों के ही तो अपने है। श्रुतदेव और महाराज बहुलाश्व दोनों एक साथ अंजलि बाँधकर बोले- 'आप सर्वेश्वरेश्वर करुणाधाम ने अपने इस जन पर अनुग्रह किया तो अब अपने श्रीचरणों से इसके आवास को भी पवित्र करें।' श्रीकृष्ण न राजा के हैं, न रंक के। उन्हें यदि सम्पत्ति, वैभव आकर्षित नहीं करता तो तप-त्याग साधन भी उनके लिये कोई महत्त्व नहीं रखता। वे प्रेम के-केवल विशुद्ध प्रेम के वश होते हैं और यहाँ दोनों प्रेममूर्ति सम्मुख थे। कोई समस्या नहीं। एक बार श्रीकृष्णचन्द्र ने महर्षियों की ओर देखा और उनका रथ चल पड़ा। दोनों को लगा कि उनकी ही प्रार्थना स्वीकार हुई। दोनों को लगा कि ऋषिगणों के साथ श्रीद्वारिकाधीश का रथ उनके द्वार पर ही आकर रुका। महाराज बहुलाश्व कृतार्थ हो गये। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के साथ सबको उचित आसन दिये। उनके चरण धोये। चरणामृत से सम्पूर्ण राजसदन अभिषिक्त हुआ। चंदन, पुष्प, माल्य, धूप, दीप, वस्त्र, आभरण, नैवेद्य, ताम्बूलादि महाराजोपचार विधि से महाराज बहुलाश्व ने सपरिवार पूजन किया सबका और पूजन-भोजन सम्पूर्ण हो जाने पर जब सब स्वस्थ आसीन हो गये, बहुलाश्व ने श्रीकृष्णचन्द्र के दोनों चरण अपनी गोद में लिये और उनको दबाने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पर्ण कुटी
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