श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. देवर्षि का कुतूहल
'आप व्यर्थ ही भटकते रहे। ऐसे श्रम से क्या लाभ?' श्रीकृष्णचन्द्र ने तनिक हँसते हुए उलाहना दिया- 'मैं अनन्त-अनन्त रूप हूँ, यह आप जानते ही हैं। गृहस्थ को कैसे रहना चाहिए, अपनी पत्नी, पुत्र-पौत्र, स्वजनों, आश्रितों आदि के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह आदर्श उपस्थित करने के लिए मैं अपनी प्रत्येक रानी के सदन में प्रयत्न करता हूँ। आप गृहस्थ तो हैं नहीं, अतः इस उलझन में, इस उधेड़बुन में मत पड़िये।' पत्नी को, पुत्र को, स्वजनों को, आश्रितों को, अतिथि को, ब्राह्मणों को किसी को नहीं लगना चाहिए कि उसकी उपेक्षा की गयी हैं, यह सतत सावधानी गृहस्थ का कर्तव्य है। यही उसका तप है। श्रीकृष्ण से बड़ा गृहस्थ कौन? अन्ततः इन पूर्ण पुरुष को गार्हस्थ्य की पूर्णता भी तो प्रदर्शित करनी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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