श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'वत्से! श्रीद्वारिकाधीश आ गये!' अपने चरणों के सम्मुख भूमि में मस्तक रखे राजकन्या के सिर पर दक्षिण हाथ रखकर स्नेह से ब्राह्मण ने कहा- 'उन्होंने तुम्हें स्वीकार कर लिया और ले जाने ही आये हैं। उनके अग्रज सम्पूर्ण यादव सेना को अपने ऐश्वर्य से ही उठा लाये हैं द्वारिका से विदर्भ, और जब वे अनन्त अपने ऐश्वर्य से काम लेने लगे- जरासन्धादि क्षुद्रतम हैं उनके सम्मुख। तुम अब निश्चिन्त हो जाओ।' 'आपके इस उपकार के प्रतिकार के लिए तो रमा भी अकिञ्चना है।' रुक्मिणी जी ने अपने स्वरूप का स्मरण कर लिया और लगा ब्राह्मण को देने योग्य उन महालक्ष्मी के समीप भी कुछ नहीं- 'इन चरणों में सदा-सदा के लिये प्रणति........।' 'मेरी पुत्री द्वारिकाधीश्वरी होगी, इससे बड़ी उपलब्धि और क्या मेरे लिये!' ब्राह्मण गम्भीर हो गये। इन श्रीहरिप्रिया की सदा की प्रगति से भी महान कोई वरदान कभी संभव है? 'अग्रज, परिकर के साथ श्रीकृष्णचन्द्र पधारे हैं आपकी कन्या के विवाह को देखने!' महाराज भीष्मक को संवाद मिला दूत के द्वारा। तत्काल उन्होंने कुलपुरोहित, मंत्री, मुख्य राज सभासद एकत्र किये और वाद्यों की मंगलध्वनि के साथ स्वागत करने चल पड़े। महाराज हिरण्यरोमा- भीष्मक जी ने स्वागत किया, अर्ध्य दिया। वस्त्र, आभूषण, गायें, अश्व आदि भेंट अर्पित की। सबको लेकर आये और उपवन में जल की सुविधा देखकर आवास दिया। सब की पूजा-सत्कार किया उन्होंने यथा योग्य, और बहुत प्रसन्न हुये- हृदय से प्रसन्न हुए। 'राजपुरोहित कहते हैं कि रुक्मिणी का पाणिग्रहण श्रीकृष्ण करेंगे, यह विधाता का विधान है।' महाराज के मन में आया- 'मेरी पुत्री का हरण करने ही वे आये होंगे- रुक्मिणी इनके ही योग्य है। ये यदि ऐसा करते हैं, सौभाग्य ही होगा मेरा।' 'श्रीकृष्णचन्द्र पधारे हैं।' नगर में बात फैल गयी। राजमाता मन ही मन देवताओं की प्रार्थना करने लगीं- 'एक ही कन्या है मेरे। मैं उसकी माता हूँ- मैं ही उसका हृदय नहीं जानूँगी। मैंने कोई पुण्य किया हो तो अच्चुत उसे स्वीकार कर लें।' 'श्रीकृष्ण आये हैं' इस समाचार ने कुण्डिनपुर के नागरिकों को उत्साह से भर दिया। पुरुष तो यादव-शिविर की ओर दौड़े ही, जो भी स्त्रियाँ जा सकती थीं, वे भी चल पड़ीं। नागरिक नर-नागरिकों की भीड़ का प्रवाह उमड़ पड़ा। सबको उन त्रिभुवन सुन्दर के दर्शन करने थे।' भगवान बलराम तथा यादवगण सत्कार करने लगे। सम्मान देने लगे और जब उपहार देने लगे तो प्रायः एक स्वर सुनायी पड़ा सब से- 'आप हमारे आदरणीय हैं। आपकी सेवा करनी है हमें।' 'आपको तो लेना है हमसे। आप लेंगे वह कृपा होगी हम पर।' कुछ ने सस्मित कह दिया खुलकर। 'कितने उदार हैं उनके अग्रज!' नगर में सर्वत्र एक ही चर्चा- 'कितने विनम्र है उनके अनुज गद आदि। कितनी विशाल, बलवान है यादव-वाहिनी, और वे नील-सुन्दर- उनके सौन्दर्य की कोई तुलना है। उनके योग्य अर्धांगी केवल हमारी राजकुमारी है और राजकुमारी के योग्य पति भी वही हैं। तन्वंगी, कमलनयना सौन्दर्य सौकुमार्य की मूर्मि राजकुमारी के योग्य त्रिभुवन में दूसरा कोई पुरुष नहीं है।' 'हमारे कोई पुण्य हों- कोई दान, कोई व्रत, कोई परोपकार तो उससे जगन्नियन्ता प्रसन्न हों और यह कृपा करें, कि राजकन्या का पाणिग्रहण ये द्वारिकेश ही करें।' नगर के लोगों ने केवल मन में ही नहीं कहा, उनमें अनेकों ने, बहुतों ने अपने आराध्य मन्दिरों में प्रार्थना, पूजा, पाठ तक प्रारम्भ कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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