श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
42. पति-दान
'मैं इनकी छुद्रचरण सेबिका हूँ बहिन!' रुक्मिणी जी ने सत्यभामा को उठाया- 'स्वयं भी पलड़े में जा बैठूं तो कुछ होने वाला नहीं है, किन्तु उपाय है। तुम व्रज के शिविर से किसी को भी बुला लो। वहाँ कोई भी इनका मूल्य देने में सम्यक समर्थ है।' 'श्रीकृष्णपट्टमहिषी सत्यभामा जी स्वयं पैदल ही दौड़ती चली गयीं और जाकर श्रीराधा के रोते-रोते चरण पकड़ लिये उन्होंने। यह भूल तो हो ही गयी थी कि इस महोत्सव में श्रीव्रजराज तथा मैया को आमन्त्रित करना उन्हें स्मरण नहीं आया था। श्रीवृषभानुनन्दिनी ने उठाकर हृदय से लगाया उन्हें और सब सुनकर उठ खड़ी हुई। वे नतनयना मंदगति से चलती आयीं। निखिल ब्रह्माण्डेश्वरी के गौरव से चलती आयीं वे और उसी गौरव से तुला के समीप जाकर दूसरे पलड़े में जो कुछ रखा था उसे संकेत से हटा देने का आदेश दिया। जब वह पलड़ा सर्वथा रिक्त हो गया, अपने कण्ठ में पड़ी वनमाला से एक तुलसीदल तोड़कर दूसरे पलड़े पर सावधानी से उन्होंने धर दिया। सबने आश्चर्य से देखा कि वह दूसरा पलड़ा भूमि से जा लगा और जिसमें श्रीकृष्णचन्द्र बैठे थे वह पलड़ा ऐसे ऊपर उठ गया कि मानो उसमें कुछ रखा ही न हो। सहसा देवर्षि झपटे। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के कण्ठ में पड़ी माला निकाल दी और बोले- 'केशव! आप अब स्वतन्त्र हैं।' देवर्षि ने हाथ पकड़कर श्रीकृष्ण को तुला से उठा दिया और दूसरे पलड़े में पड़े तुलसीदल को इतनी शीघ्रता में उठाकर जटा में छिपाया जैसे उन्हें बहुत भय हो कि कोई इसे उनसे छीन न ले। उसे जटा में छिपाकर वे आनन्दोन्मत्त नृत्य करने लगे। कई दिनों पीछे श्रीसत्यभामा जी ने मिलने पर देवर्षि से पूछा- 'आपने उस समय के अतिशय-आनन्द को मैं समझ नहीं सकी अब तक।' 'श्रीकीर्तिकुमारी का अपना स्वरूप ही है तुलसी। उन्होंने तुलसीदल रखकर स्वयं अपने को, अपने हृदय को रख दिया। पलड़े पर महारानी और वे जहाँ हैं, श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ से हट सकते हैं।' देवर्षि के उल्लास का कारण अब सत्यभामा जी की समझ में आया और वे उसी समय व्रज के शिविर में पहुँचने को उठ पड़ीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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