श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. ग्रहण-यात्रा
यादव शिविर में सबका सबके स्नान-दानादि समस्त पुण्यों का एक ही प्रार्थ्य- 'हमारी प्रीति बनी रहे श्रीकृष्ण में।' इतना पावन संकल्प, इतना भगवतकाम धर्म तो स्वयं धर्म को भी कृतार्थ कर देता है। ऋषियों मुनियों को, ब्राह्मणों को, सम्मान्यजनों को भोजन कराने के पश्चात यदुवंशियों ने भोजन किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने तो सबके आग्रह करने पर भी सेवकों तक ने जब भोजन कर लिया तब आहार-ग्रहण किया। तीर्थ-स्नान, दान, जप-पाठ और भोजन हो चुका तब सबको अपने स्वजन सम्बन्धियों से मिलने का अवकाश मिला। सभी तो आये थे-स्व-पर सभी पक्ष आये थे। जहाँ धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के साथ आये थे, मगधराज जरासन्ध, शिशुपाल, दन्तवक्र, शाल्वादि आये थे, वहीं भीष्म, द्रोण, विदुर, देवी कुन्ती और उनके पाँचों पुत्र आये थे। कोशल नरेश महाराज नग्नजित, विदर्भपति भीष्मक, रुक्मी, केकय-नरेश सपुत्र तथा दूसरे सम्बन्धी भी आये थे और सबको ही श्रीद्वारिकाधीश के दर्शन करने थे। श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों के पिता, भाई आये थे और उनमें से प्रत्येक चाहता था कि श्रीकृष्ण की सभी रानियाँ- सभी पुत्र-पौत्र अपनी वधुओं के साथ उनका सत्कार स्वीकार करें। उनकी सभी तो पुत्रियाँ थीं। इस स्वागत करने वालों में तो दुर्योधन, रुक्मी ही नहीं, शिशुपाल और दन्तवक्र तक किसी से पीछे नहीं रहना चाहते थे। उनकी माताएँ आदि अपने भाई के पुत्र-पौत्रों तथा उनकी वधुओं का स्वागत करने को उत्सुक थीं तो यह उनका स्वत्व नहीं है, कोई कैसे कहेगा। सबको इस समय द्वारिका से अपना सम्बन्ध ही स्मरण आ रहा था।
'आपकी पुत्र-वधुओं का पिता होने के कारण आपके पूरे समाज का कम से कम एक समय सत्कार का सुअवसर मुझे मिलना चाहिए।' द्वेष का कल्मष कोई तीर्थ में क्यों पाले। इस पुण्यक्षेत्र के पुरुषोत्तम के दर्शन, मिलन सत्कार का सौभाग्य कोई क्यों छोड़ दें और श्रीकृष्णचन्द्र के लिए सृष्टि में कोई भी पराया कहाँ है। वे किसी के भी प्रेमाग्रह को अस्वीकार करना कहाँ जानते है और यहाँ तो सब अपना स्वत्व- अपने सम्बन्ध का स्वत्व लेकर आग्रह करते आ रहे थे। बहुत नरेशों की कन्याएँ थीं द्वारिका के अन्तःपुरों में। श्रीकृष्णचन्द्र को, उनके पुत्र-पौत्रों को जिनकी पुत्रियाँ विवाही गयी थीं, वे सत्कार करने, उपहार देने का यह अवसर क्यों छोड़ दें। यादवगण भी अपने सम्बन्धियों से मिलने और उनका सत्कार करने में लगे थे। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र को अग्रज के साथ अवकाश नहीं था। उनसे मिलने ऋषि-मुनि तथा नरेशों का, लोक सम्मानित पुरुषों का समुदाय निरन्तर आ रहा था। पितामाह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर जी, देवी गान्धारी के साथ धृतराष्ट्र, पत्नियों तथा माता के साथ पांडव तो अपने ही थे। वे ऐसे थे कि द्वारिका का शिविर उनका अपना था। द्रौपदी जी ने तो श्रीकृष्णचन्द्र के अन्तःपुर में ही निवास बना लिया। वे सुभद्रा के साथ श्रीकृष्ण-महिषियों से परिचय करने में, उनके विवाह की, पुत्र-पौत्रों की कथा सुनने में व्यस्त हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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