श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. विश्वजित-यज्ञ
सह्याद्रि पर भगवान दत्त के दर्शन हुए। उनका आशीर्वाद लेकर बढ़े तो द्रविड़ नरेश सत्यवाक ने सत्कार किया। महेन्द्राद्रि पर भगवान परशुराम ने आशीर्वाद दिया तथा आतिथ्य किया। अंग नरेश ने भेंट दे दी; किन्तु कलिंग (उड़ीसा) के स्वामी वृह्दबाहु से युद्ध करना पड़ा। वे साम्ब के द्वारा पराजित हुए। वंग नरेश वीरधन्वा श्रीसत्यभामा जी के कुमार चन्द्रभान से युद्ध में हार गये। प्रद्युम्न की सेना ने ब्रह्मपुत्र पार किया तो असम के स्वामी विम्ब भेंट लेकर उपस्थित हुए। कामरूप के राजा पुण्ड्र बहुत बड़े इन्द्रजालिक थे; किन्तु प्रद्युम्न के सम्मुख एक भी माया नहीं चली। वे हार गये युद्ध में। केकय नरेश धृतकेतु के लिए प्रद्युम्न अपने दौहित्र तुल्य ही थे। वहाँ पूरी सेना का भरपूर सत्कार हुआ, मिथिला नरेश बहुलाश्व की भक्ति की बहुत प्रशंसा श्रीबलराम जी से प्रद्युम्न ने सुनी थी। वे वहाँ एकाकी ब्रह्मचारी वेश में गये; किन्तु बहुलाश्व की भक्ति देखकर प्रकट हो गये। वहाँ श्रद्धा सहित अर्चा प्राप्त हुई। श्रीसंकर्षण जानते थे कि मगधराज जरासन्ध से पार पाना कठिन है। गिरिव्रज में भयंकर युद्ध हुआ और जरासन्ध से सभी हार गये थे; किन्तु तभी श्रीबलराम का रथ पहुँचा। उनके साथ युद्ध में जरासन्ध पराजित हो गया और उसने भेंट दे दी। जरासन्ध की पराजय से अन्य नरेश भयभीत हो गये। उन्होंने आगे आकर स्वयं भेंट देना प्रारम्भ किया। दक्षिणकोसल के स्वामी महाराज नग्नजित तो श्रीकृष्ण पुत्रों का सत्कार करते ही पौण्ड्रक के पुत्र ने भी सत्कार किया और नेपाल तथा पर्वतीय नरेशों ने भी प्रद्युम्न का स्वागत किया। विन्ध्य नरेश दीर्घबाहु ने उसी समय अपनी कन्याओं के स्वयंवर की घोषणा कर दी। उनकी घोषणा थी- स्फटिक के जलपूर्ण पात्र का वाण के द्वारा ऐसा वेध जो कर सकेगा कि पात्र टूटे नहीं, बाण पात्र के एक ओर से प्रवेश करके उसी में स्थिर रहे, जल न निकले, उसे वे अपनी कन्या देंगे। हस्तलाघव की पराकाष्ठा; किन्तु श्रीकृष्ण के अठारह पुत्रों ने यह चमत्कार कर दिखाया। दीर्घबाहु ने उन सबको अपनी पुत्रियाँ विवाह दीं। निषध, भद्रदेश, माथुर, शूरसेन और मधु तो अपने स्वजन सम्बन्धियों के राज्य थे। वहाँ से सत्कार मिलना ही था। वज्रपति नन्दराय ने भरपूर स्नेह-सत्कार किया। 'हम जामाता का सत्कार करेंगे।' दुर्योधन को सुबुद्धि आ गयी। इन्द्रप्रस्थ से गाण्डीवधन्वा साथ हो गये- 'यह कोई उचित बात है कि केवल बालकों को दिग्विजय करने भेज दिया गया।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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