श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
'यह तो अपनी ब्राह्मणी का स्वर है।' सुदामा ने दृष्टि उठायी और देखते रह गये। पत्नी ही थी उनकी; किन्तु तरुणी, अत्यन्त सुन्दरी और नख-शिख रत्नाभरण भूषिता। 'आप भीतर पधारें।' पत्नी ने प्रार्थना की- 'आपके सखा बहुत विनोदी हैं, यह स्पष्ट दीखता है; किन्तु आप भूलते क्यों हैं कि वे साक्षात श्रीपति हैं और परमोदार हैं।' सुदामा भवन में आये। स्वागत-सत्कार तो होना ही था। पत्नी ने पूछा एकान्त में- 'एक बात समझ में नहीं आती। सहसा रात्रि में ही यहाँ सब हो गया। जिनके संकल्प से अनन्त अनन्त ब्रह्माण्ड बन जाते हैं, उन निखिल ब्रह्माण्ड नायक के लिए यह अद्भुत बात नहीं है, किन्तु यहाँ भवनों की ही नहीं, सब पदार्थों की संख्या है, एक ही संख्या सब सोलह सहस्र एक सौ नौ।' 'ओह श्रीकृष्ण की महारानियाँ हैं सोलह सहस्र एक सौ आठ और एक वे स्वयं।' सुदामा को ठीक लगा था। उनके चिउड़े का प्रसाद लिया जाय और उन ब्राह्मण को दक्षिणा न दी जाय, यह कैसे संभव था। अत्यल्प दक्षिणा सबने एक-एक पदार्थ ही तो दिया था। 'कितने संकोची हैं वे परमोदार। सम्मुख कुछ नहीं कहा। सखा को संकोच हो, उसे उपकृत होना पड़े, यह कुछ नहीं और उनका दान-यह अपना दान।' सुदामा सदा-सदा के लिए श्रीकृष्ण प्राण हो चुके थे। उन्हें भला भोग क्या प्रलुब्ध करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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