श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
सुदामा के पद चल रहे थे; किन्तु उन्हें पता नहीं था कि वे कैसे किधर जा रहे हैं। उनके नेत्रों से अश्रुधारा चल रही थी- 'मेरे लाये वे चिउड़े, मुख में भी डालने योग्य नहीं थे वे। उन्हें हाथ में लेते भी इनके पद्म-पाणि पीड़ित होते होंगे; किन्तु कितने प्रेम से खाये इन्होंने। इनकी पट्ट-महिषी ने कितने आग्रह से उन्हें लिया।' 'कितने स्वजन-वत्सल, कितने सावधान हैं श्रीकृष्ण।' सुदामा को जब स्मरण आया कि उन्हें कुछ नहीं दिया गया तो वे और अधिक भाव-विभोर हुए- 'मेरी ब्राह्मणी तो मूर्ख है। वह नहीं समझती कि अर्थ पतन का हेतु होता है, किन्तु ये मेरे सच्चे मित्र-इन्होंने समझ लिया कि यदि निर्धन को धन दे दिया गया तो वह भोग में लग जायेगा। मदोन्मत्त होकर अनर्थ करेगा। संयम, भजन छोड़ बैठेगा। स्वयं सखा को अनर्थ की ओर कैसे धक्का देते वे। अन्यथा वे तो राशि-राशि स्वर्णरत्न, गायें ब्राह्मणों को दान कर ही रहे थे। मुझे अपना-सर्वथा अपना माना उन्होंने। मैं कोई दूसरा था कि मुझे दान देते वे।' सुदामा को पता ही नहीं लगा कि वे कैसे चलते गये और कितना मार्ग उन्होंने पार किया। उन्हें यह भी ध्यान नहीं आया कि उनको क्षुधा-पिपासा क्यों नहीं लग रही है और उनका शरीर इतना मार्ग चलकर श्रान्त क्यों नहीं हो रहा है। द्वारिका में और मार्ग में उनके मन-प्राण पर केवल श्रीकृष्ण छाये रहे और अब तो वे घनश्याम सुदामा के पूरे जीवन पर छा चुके। सुदामा का वह देह जो कंकालप्राय: था, द्वारिका का आतिथ्य ग्रहण करके रात्रि में ही सुन्दर, सुपुष्ट, तरुण हो गया है, यह भी सुदामा को कैसे पता लगता। 'मैं क्या फिर द्वारिका लौट आया?' सुदामा चौंके जब उनके सम्मुख द्वारिका के समान ही गगनचुम्बी दिव्य भवनों से पूर्ण महानगर दीख पड़ा। वे स्तव्ध खड़े रह गये। 'द्वारिका तो नहीं है।' बहुत ध्यान देने पर कुछ विलक्षणता लगी- 'किन्तु द्वारिका के मध्य बने श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों के भवनों के ठीक-ठीक समान भवन। किसने उन द्वारिकाधीश के भवनों की अनुकृति की? यह नगर कौन-सा? कहाँ मैं आ गया मार्ग भटककर?' समुद्र समीप है। उसका गर्जन सुन पड़ता है, किन्तु सेतु से नहीं आना पड़ा। द्वारिका नहीं तो यह स्थान कौन-सा? सुदामा नगर के महाद्वार पर चकित खड़े देखते रहे। इतने में शंखध्वनि तथा वाद्यों के साथ नगर से स्त्री-पुरुषों का समूह निकला। 'श्रीकृष्ण सखा की जय। सुदामा जी की जय!' का महाघोष करता और उसने सुदामा को पुष्पमालाओं से लाद दिया। उनके ऊपर पुष्प, दूर्वा, लाजा, कुमकुम आदि की वर्षा होने लगी। 'यह क्या माया है?' सुदामा चकित थे। कुछ डरे भी। एक लक्ष्मी के समान सुन्दरी बहुत-सी देवांगनाओं से घिरी चलती आई और उनकी आरती करने लगी। सुदामा भला क्यों महिलाओं की ओर देखते। उन्होंने सिर झुका रखा था। कठिनाई से पूछा- 'देवि, आप?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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