श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'देव! राजकन्या को परसों ही देव-पूजन करने राजसदन से निकलना है।' ब्राह्मण ने स्मरण दिलाया, 'उसके अगले दिन विवाह है। मुझे मार्ग में बहुत समय लगा है। यद्यपि मैं बिना रात्रि-विश्राम के कहीं रुका नहीं हूँ।' 'आप चिंता न करें।' ब्राह्मण को आश्वासन दिया श्रीकृष्णचन्द्र ने और दारुक को बुलवाया- 'हम प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में चल देंगे। रथ में मेरे सब शस्त्र रख लेने हैं।' ब्राह्मण मौन बने रहे। लेकिन बहुत चकित- गरुड़ नहीं, सेना नहीं, दूसरा कोई साथ नहीं लेना- सामर्थ्य इसका नाम है। सर्वसमर्थ अश्वों से जाना चाहते हैं तो भी उनके लिए दूरी का क्या अर्थ है। ब्राह्मण ने ब्रह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में ही स्नान किया। संक्षिप्त सन्ध्या कर ली। श्रीद्वारिकाधीश उनसे पहिले प्रस्तुत हो गये। ब्राह्मण को उन्होंने अपने साथ रथ पर बैठाया और दारुक ने रथ को हाँक दिया। शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक- चारों श्यामकर्ण, चारों दिव्य अश्व और वे गरुड़ध्वज दिव्य रथ को लेकर मानो उड़े जा रहे थे। ब्राह्मण को लगा- वह किसी आकाशगामी विमान पर बैठा है। उसे आशा तो दूर, कल्पना भी नहीं थी कि रथ भी इतना तीव्रगामी हो सकता है। उसने नेत्र बन्द कर लिये, क्योंकि वायु के वेगमान झौंके उसके नेत्र सहन नहीं कर पाते थे।
'कुण्डिनपुर?' भगवान संकर्षण चौंके। वहाँ से ब्राह्मण विवाह का निमन्त्रण लेकर आता तो ऐसे चुपचाप जाना क्यों होता? कुण्डिनपुर जाने का एक ही प्रयोजन संभव है- राजकुमारी का हरण और तब वहाँ युद्ध अनिवार्य है। रुक्मी का द्वेष है यादवों से और वह अकेला भी दुर्जय योद्धा है। श्रीकृष्ण उस राजकन्या को सम्भालेंगे या युद्ध करेंगे? भगवान बलराम के अधरों से उसी समय शंख लग गया और सेना का आह्वान करने के स्वर में गूँजने लगा। दो क्षण में तो द्वारिका युद्ध-भेरी के घनघोष, योद्धाओं के हुँकार से भर उठी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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