श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. नरक-निधन
नरकासुर को एक कार्य और प्रिय था। वह चाहे जब देवयान मार्ग रोक कर खड़ा हो जाता था और उस मार्ग से जाने वाले योग-सिद्ध जनों को डराया करता था। इसमें उसे आनन्द आता था। उसका तर्क था- 'भू देवी मेरी माता है। सदा के लिए उनकी गोद छोड़कर जाने वाले ये मोक्षकामी मूर्ख हैं।' नरकासुर ने आक्रमण करके वरुण का छत्र छीन लिया था। दूसरे आक्रमण में वह देवलोक से देवताओं का क्रीड़ा-पर्वत उठा लाया। तीसरा आक्रमण किया उसने और इस बार देवमाता अदिति के कानों के अमृतस्त्रावी कुण्डल झपट लाया- 'ये कुण्डल मेरी माता के कर्णाभरण बनने योग्य हैं।' देवराज इन्द्र के लिए यह तीसरा आक्रमण बहुत ही दुःखदायी तथा अपमानजनक लगा। देवमाता का अपमान; किन्तु वे नारायण-पुत्र का कुछ भी तो बिगाड़ने में असमर्थ थे। इन्द्र को एक उपाय सूझा- श्रीकृष्णचन्द्र यदि नरकासुर को मारकर सत्यभामा को लिये स्वर्ग आ जायँ तो सत्यभामा यहाँ कल्पवृक्ष के साथ श्रीकृष्ण का दान देवर्षि नारद को कर सकेंगी। इस प्रकार सत्यभामा का-श्रीकृष्ण का संकल्प पूरा हो जायगा और कल्पवृक्ष पृथ्वी पर जाने से बचा भी रहेगा। इन्द्र ऐरावत पर बैठे, और प्रमुख देवताओं के साथ द्वारिका आये। ऐरावत छोड़कर उन्होंने द्वारिका की दाशार्ही राजसभा में प्रवेश किया। तेजोराशि से घिरे देवराज वज्रपाणि इन्द्र तथा दूसरे देवताओं को देखकर महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी जब स्वागत करने उठे तो श्रीबलराम-श्रीकृष्ण को भी उठना पड़ा। देवताओं का स्वागत करके उन्हें अर्ध्य दिया और आसन पर बैठाकर पूजा की। इन्द्र ने सुरों के साथ पूजन-ग्रहण किया। इसके पश्चात वे श्रीकृष्ण से बोले- 'भाई उपेन्द्र! तुम मेरे किसी व्यवहार से असन्तुष्ट हो सकते हो; किन्तु वह हम दोनों भाइयों की परस्पर बात है। इस समय माता अदिति का अपमान हुआ है।' 'माता का अपमान किस दुरात्मा ने किया है?' देवराज के स्वर में व्यंग नहीं था। दुःख था। 'मेरा पुत्र? कौन?' श्रीकृष्ण ने प्रद्युम्न और साम्ब की ओर देखा। 'भौमासुर।' देवराज इन्द्र ने कहा- 'वह भूमिपुत्र वैसे भी सुरों से अवध्य है, इस पर उसने तप करके भगवान ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर लिया। वह देवता तथा ऋषियों के विरोध में लगा रहता है। जलाधिप का छत्र छीन ले गया तो कोई बात नहीं थी। सुरों के मणिपर्वत का हरण भी मैंने सह लिया; किन्तु वह देवमाता के दोनों कुण्डल छीन ले गया और हम सुर उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।' 'मैं उसे मार दूँगा।' श्रीकृष्ण स्थिर स्वर में बोले- 'माता का अपमान सहन नहीं किया जा सकता।' 'मेरी एक प्रार्थना और है।' शक्र ने सिर झुकाकर कहा- 'माता के कुण्डल तुम स्वयं अपने हाथों उनकी कर्णपल्ली में पहिनाने आओ तो बहू सत्यभामा को लेते आना।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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