श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. भानुमती-हरण
भानुमती अब दैत्य के लिए ढाल थी। वह उसके हाथ में न होती तो श्रीकृष्ण के चक्र या पार्थ के बाण ने कब का उसे भस्म कर दिया होता। असुर बार-बार अन्तर्धान होता था और भागता था। गरुड़ उसके पीछे लगे थे। गरुड़ अनन्त काल तक उड़ने में समर्थ हैं; किन्तु दानव निकुम्भ में तो इतनी शक्ति नहीं। वह भागते-भागते अन्त में थककर गोकर्ण क्षेत्र के पास पर्वत पर गिरा और भानुमती उसके हाथ से छूट गयी। वह भी मूर्च्छित हो गयी थी। प्रद्युम्न ने उसे वहाँ से उठाया। 'तुम इसे द्वारिका पहुँचा आओ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रद्युम्न को आदेश दिया। वे रथ में उसे लेकर द्वारिका चले गये। यह तनिक अवसर मिला था निकुम्भ को। वह पर्वत पर-से उठकर सीधे दक्षिण भागा। षट्पुर में जाकर वह छिप गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन उसके पीछे लगे पहुँचे। वे रात्रि भर षट्पुर से बाहर छिपकर दैत्य के निकलने की प्रतीक्षा करते रहे। 'यदि यह इससे न निकले?' अर्जुन ने गुफा के समीप बैठे अपने मित्र से पूछा। बात ठीक थी। निकुम्भ रात्रि में ही बाहर निकला। निकलते ही उस पर अर्जुन ने गदा का आघात किया। और असुर ने अर्जुन पर। दोनों ही मूर्च्छित हो गये। प्रातः रथ पर बैठे प्रद्युम्न आ पहुँचे। उन्होंने पिता से कहा- 'दानव निकुम्भ का यह सम्मुख पड़ा शरीर तो माया कलेवर है। वह इसे छोड़कर अदृश्य होकर निकल भागा है।' अब श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया। इन द्वारिकाधीश का स्वभाव ही है कि अपने आश्रितों का अपराध वे सहन नहीं कर पाते। अर्जुन मूर्च्छित पड़े थे और अघम दानव छल कर गया। श्रीकृष्ण ने चक्र उठा लिया। चक्र से बचकर निकुम्भ कहाँ जाता। उस सहस्रार ज्योतिर्मय के सम्मुख तो माया टिका नहीं करती। चक्र की ज्वाला में निकुम्भ भस्म हो गया। अर्जुन का प्रद्युम्न ने उपचार किया। तीनों द्वारिका लौटे। द्वारिका में उसी समय देवर्षि पधारे। 'यह तब बच्ची ही थी। माता के साथ रैवतक गिरी पर गयी थी। वहाँ खेलने में अकेली पड़ी और महर्षि दुर्वासा दीखे तो उन्हें चिढ़ाने लगी।' देवर्षि ने कहा- 'दुर्वासा जी ने शाप दे दिया- यह कन्या असुर द्वारा हरण की जायगी।' 'यह अभी अबोध बालिका है। इस पर रोष नहीं, अनुग्रह करना उचित है।' मैं वहीं था, मैंने दुर्वासा जी से कहा। मेरी बात सुनकर वे सिर झुकाये मौन बने रहे दो घड़ी। क्रोध शान्त होने पर बोले- 'यह असुर के हाथ में पड़कर भी अदूषित लौट आवेगी। इसे अपने हरण का स्मरण नहीं रहेगा। अब तुम अपने छोटे भाई सहदेव से इसका विवाह कर दो।' देवर्षि का आदेश कौन टालता। सहदेव श्रीकृष्ण का सन्देश पाकर द्वारिका आये। भानु ने उन्हें सविधि-कन्यादान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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