श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वज्रनाभ-वध
हंसिनी रात्रि में भवन-वापी में सो चुकी थी। व्याकुल राजकुमारी ने सौंध के ऊपर से कूदकर देह-त्याग का निश्चय कर लिया- 'वे इसी नगर में है और नहीं आये तो अब आने की क्या आशा? उनको दानवी नहीं रूचि तो यह दानव देह क्यों बना रहे?' प्रद्युम्न ने कूदने को उद्यता राजकुमारी को भुजाओं में भरकर रोक लिया। दो प्रणयी मिलते हैं तो वागदेवी विदा ले लेती हैं। लेकिन यह पवित्र-प्रणय था। प्रद्युम्न ने अग्नि प्रकट की, पुष्पाहुति देते हुए मन्त्रोच्चारण पूर्वक प्रभावती का सविधि पाणि-ग्रहण किया। रात्रि भर प्रद्युम्न उसी भवन में रहे। ब्राह्म मुहूर्त में नटों के आवासमें चले गये। अब यह क्रम चल पड़ा। नट एक अभिनय करते और दो-तीन रात्रि नवीन अभिनय की प्रस्तुति में लगाते। उस समय प्रद्युम्न रात्रि में प्रभावती के सदन में रहते। 'बहिन! तुम इन दिनों किसी से मिलती नहीं हो। सदा सजी रहती हो। किसी दैत्य या दानव कुमार से प्रणय चल रहा है तुम्हारा?' वज्रनाभ के भाई सुनाभ के दो पुत्रियाँ थीं चन्द्रावती और गुणवती। दोनों युवती थीं, सुन्दर थीं। उन्होंने एक दिन प्रभावती से पूछ लिया। 'मेरे पास विद्या है। उस विद्या से त्रिभुवन में जो पुरुष अभीष्ट हो, आ मिलता है। मैं क्यों दैत्य-दानव कुमारों की ओर देखूँ। असुर दम्भी हैं और निष्करुण!' 'तभी तो!' दोनों कुमारियाँ प्रभावती की ओर आश्चर्य से देखती रह गयीं- 'बहिन, बहुत बड़ा सौभाग्य पाया तुमने। बहुत पुण्य किये होंगे पहिले जन्मों में।' 'तुमको भी चाहिए यह सौभाग्य?' प्रभावती ने हँसकर पूछ लिया- 'मेरी विद्या तुम्हारे काम भी आ सकती है। श्रीहरि के और भी कुमार हैं। ऐसा अवसर पुनः जीवन में नहीं आवेगा। वरण करोगी तुम उनका?' 'बहिन तुम पूछती हो- वे हम दानव-पुत्रियों को स्वीकार करेंगे?' दोनों ने खुलकर कह दिया- 'कर सकें तो तुम कृपा करो।' प्रभावती ने प्रद्युम्न से चर्चा की और उसका परिणाम हुआ कि श्रीकृष्णानुज गद ने चन्द्रावती का तथा साम्ब ने गुणवती का पाणि-ग्रहण गन्धर्व विधि से कर लिया।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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