श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. प्रद्युम्न-परिणय
'मैं उसमें बैठने ही आया हूँ और कोई धृष्टता नहीं करूँगा। प्रद्युम्न ने आश्वासन दिया। 'वह क्या?' प्रद्युम्न ने पूछ लिया। 'कल ही स्वयंवर सभा है। समय नहीं है कि मैं पुत्री को समझा सकूं और ऐसा करना अब आमन्त्रित राजकुमारों के साथ अन्याय होगा।' रुक्मी ने स्पष्ट कहा- 'जो लोग आये हैं, उनमें-से अधिकाँश तुम्हारे पिता के शत्रु हैं और ससैन्य आये हैं। कन्या तुम्हें वरण करे तो मैं सेना सहित तुम्हारा समर्थन करने को धर्मतः स्वतन्त्र हूँ; किन्तु वह किसी और को यदि वरमाला डालती है; मैं उसके हरण में तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।' 'मैं कन्या हरण करने नहीं आया।' पुत्र ने पिता का वाक्य दुहरा दिया- 'अन्य मनोलग्ना कन्या को पाने में मेरा कोई उत्साह नहीं है। लेकिन इन आगतों ने कोई उत्पात किया तो मैं अकेले ही इन्हें देख लेने में सक्षम हूँ। ऐसी कोई घृष्टता करनी पड़े तो आप क्षमा करेंगे।' रुक्मी प्रसन्न हो गया प्रद्युम्न के शील, विनय तथा साहस से। उसकी बहिन ने उपयुक्त पुत्र पाया है। प्रद्युम्न ने कह दिया- 'आप अद्वितीय महारथी हैं, किन्तु कोई अवसर आ ही पड़े तो इस बालक को थोड़ा अवसर देंगे अपने कौशल एवं पराक्रम को प्रकट करने का।' सचमुच स्वयंवर सभा में यह अवसर आ गया। रुक्मवती ने तो प्रद्युम्न के आने पर जब उन्हें देखा था तभी निश्चय कर लिया था। उन साक्षात मन्मथ को देखकर कोई भी कन्या दूसरे का वरण करेगी कैसे। स्वयंवर सभा तो औपचारिक बन गयी। रुक्मी ने प्रद्युम्न को कन्या के प्रवेश द्वार के पार्श्व में प्रथमासन दिया था। वन्दियों ने प्रशस्ति सुनायीं। कन्या ने वरमाला लिये सखियों के साथ प्रवेश किया रंगस्थल में और प्रद्युम्न का परिचय भी पूरा नहीं हुआ था वन्दियों के द्वारा कि कन्या ने उनके कण्ठ में वरमाला डाल दी। 'छल किया गया है। सबको बुलाकर अपमानित किया गया है।' आगत राजकुमार क्रुद्ध हो उठे। रंगस्थल में कोलाहल होने लगा- 'कन्या को पहिले से सिखा दिया गया था। उसने किसी दूसरे की ओर देखा तक नहीं। किसी का परिचय नहीं सुना।' 'महाराज रुक्मी को कन्या अपने भागिनेय को ही देनी थी तो सबको स्वयंवर का आमन्त्रण क्यों किया गया?' राजकुमारों ने धनुष उठा लिये और उनकी सेना पहिले से शस्त्र-सज्ज खड़ी थी। वे कन्या-हरण को प्रस्तुत होकर ही आये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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