श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
ब्राह्मण को देखते ही वे आदिपुरुष अपने रत्नासन से उठे, दण्डवत गिरे चरणों पर, और आदरपूर्वक ले जाकर स्वर्णसिंहासन पर बैठाया। स्वयं चरण धोये। चन्दन, अक्षत, पुष्पमाल्य, धूप, दीप से सविधि पूजा की ब्राह्मण की। भोजन कराया और उत्तम शैया पर जब वे विप्रदेव विश्राम करने लगे तो वे द्वारिकाधीश स्वयं उनके चरण दबाने बैठ गये। 'आप ब्राह्मणोत्तम हैं। आपका शास्त्र-वृद्ध सम्मत धर्म निर्बाध तो है? उसके पालन में काई कठिनाई या असन्तोष का हेतु तो नहीं है?' जो समस्त विघ्नों को दूर करने में समर्थ है, वही तो ऐसा प्रश्न कर सकते हैं। 'आप संकोच मत करें।' ब्राह्मण देवता को बड़ा संकोच हो रहा था कि सर्वेश्वरेश्वर उनके पैर दबाने बैठे हैं। इसे लक्ष्य करके श्रीकृष्ण ने कहा- 'जो ब्राह्मण अपनी स्थिति में संतुष्ट रहते हैं, समस्त प्राणियों के सहृद हैं, अंहकारहीन शान्त हैं, उन्हें प्रणाम करने में मुझे सुख मिलता है। उनका चरण स्पर्श मुझे आनन्द देता है।' 'आपके प्रजापालक नरेश सकुशल तो हैं?' अर्थात महाराज भीष्मक ने किसी संकट में पड़कर तो आपको नहीं भेजा? 'आप बहुत कठिन-मार्ग पार कर बड़ी दूर से आये हैं। आपकी इतनी बड़ी यात्रा- चाहे जितनी गुप्त बात हो, बतला दें। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?' 'आप सर्वज्ञ हैं और सर्वसमर्थ हैं।' ब्राह्मण ने कहा- 'मैं विदर्भराज-दुहिता का संदेशवाहक बनकर आया हूँ। उनके ही शब्दों में सुना देता हूँ।' 'भुवन सुन्दर! आपके चरणों के अनुरागी महामुनि यदा कदा इस राजसदन को भी अपनी चरणरेणु से पवित्र करने आ जाते हैं। उनके श्रीमुख से आपके गुणों का वर्णन कर्ण मार्ग से हृदय में जाकर समस्त ताप-हरण कर लेता है। आपका रूप तो नेत्रवानों के नेत्र मिलने का परम लाभ है- यह सुनकर मेरा चित्त निर्लज्ज होकर आप में प्रविष्ट हो गया।' 'मुकुन्द! महान कुल में उत्पन्न, रूप, शील, विद्या, वय, धन आदि में अपने तुल्य आपका वरण कौन-सी कन्या करने योग्य समय आने पर नहीं करेंगी। नरश्रेष्ठ! आपका तो भुवनाभिराम हो। मुझे तो वरण का यह अवसर ही नहीं मिला, मैंने कहाँ स्वयम्वर में आकर आपका वरण करना अस्वीकार किया था।' 'मैंने तो अपने आपको आपके चरणों में उत्सर्ग कर दिया। मैं आपकी हो गयी। अब आप इसे स्वीकृति देकर सनाथ करें। मैं आपका वीरभाग हूँ- केशरी के इस भाग को शिशुपालादि दूसरे शृगाल स्पर्श करें- यह आपके लिये शोभास्पद नहीं होगा।' 'मैंने पूर्त, इष्ट, दान, नियम, व्रत, देव तथा विप्रपूजन किया हो- आप परात्पर प्रभु की आराधना की हो तो आप गदाग्रज ही आकर मेरा पाणिग्रहण करें। दूसरा कोई इस कर का स्पर्श न कर सके।' 'अजित! परसों ही मेरा विवाह है। आप यादव महासेना से रक्षित होकर पधारें विदर्भ, और जरासन्ध, शिशुपालादि की सेना को रौंदकर मुझे ले जायें। मैं अब पराक्रम के मूल्य से ही मिलने वाली हो गयी हूँ।' 'आप कह सकते हैं कि- तुम अन्तःपुर में रहती हो। तुम्हारे बंधु-बान्धवों को मारे बिना तुमको कैसे लाया जा सकता है?- इसका उपाय बतला देती हूँ- हमारे कुल में विवाह से पहिले दिन कुलदेवी के पूजनार्थ कन्या को नगर से बाहर देवी-मन्दिर जाना पड़ता है।' 'कमलनयन! भगवान शशांक शेखर भी आपकी चरणरज में स्नान करने की कामना करते हैं- जैसे वे भी इससे निर्मल होना चाहते हों। ऐसे आपकी कृपा यदि मुझे न मिली इस जन्म में तो मैं अनशन करके देहत्याग कर दूँगी। भले ही सैकड़ों जन्म इसी प्रकार मरना पड़े- आपके श्रीचरणों का आश्रय ही इस किंकरी का स्थान बनेगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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