श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन
निष्ठा - भक्ति की दृढ़ता होने पर निष्ठा होती है।
रुचि - निरन्तर आराधना से रुचि उत्पन्न होती है।
आसक्ति - भक्ति की प्रगाढ़ता से आसक्ति उत्पन्न होती है।
भाव - आसक्ति की प्रगाढ़ता से भाव उत्पन्न होता है।
प्रेम - भाव की परिपक्वता से आस्वादनीय प्रेम रस उत्पन्न होता है।
हृदय में प्रेम की उत्पत्ति के लिये साधकों के प्रयोजनार्थ ये क्रम निर्धारित किये गये हैं।
यह प्रेम-तत्त्व दास्य, सख्य, वात्सल्य, शान्त और मधुर - इन पाँच रूपों में विभाजित है। श्री चैतन्य देव ने मधुर रस के अन्तर्गत कान्ता भाव को सर्वोत्तम प्रेम का उद्भव स्थान माना है।
कान्ताभाव - इसमें व्रज गोपियों का सर्वोत्तम स्थान है। व्रज गोपियों को अपने सुख की कामना नहीं रहती, अपितु उनका सुख श्रीकृष्ण के सुख में निहित है -
- निजेन्द्रिय सुखवांछा नहि गोपिकार।
- कृष्णसुख दिने करे संगम विहार।।
- सम्पूर्ण कृष्ण प्राप्ति एई प्रेम हइते।
- एई प्रेमवश कृष्ण कहे भागवते।।
श्रीमद्भागवत के अनुसार इसी प्रेम के द्वारा जीव श्रीकृष्ण चरणाश्रय प्राप्त करता है और भगवान सदा के लिये भक्त के प्रेम बन्धन में बँध जाते हैं।
- श्रीराधा प्रेम
- इहार मध्य राधार प्रेम सर्वसाध्य शिरोमणि।
किंतु इससे भी अधिक सर्वश्रेष्ठ प्रेम आह्लादिनी शक्ति स्वरूपा महा भावमयी श्रीराधा का है। श्री महा प्रभु ने श्रीराधा के प्रेम की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। यदि श्री चैतन्य देव अवतरित न होते तो हम पामरों की क्या गति होती? श्रीमती राधिका की माधुर्य-सीमा को संसार में कौन बतलाता?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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