श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना 6

श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना


योग में वियोग तथा वियोग में योग की भावना इस माधुर्योपासना का मुख्य आधार है। दिन के समय गोचारण के लिये गये भगवान का वियोग उनके योग में ही छिपा है तथा भगवान के मथुरा चले जाने पर भी गोपियाँ वियोग में योग का अनुभव करती हैं। वस्तुत: ध्यानयोग की सिद्धि ही कृष्ण-वियोग का फल है। श्रीकृष्ण ने अपने संदेश में स्पष्ट कहा है- गोपियो! तुमसे दूर रहने का एक विशेष कारण है। वह यही कि 'तुम मेरा प्रगाढ़ ध्यान कर सको, शरीर से दूर रहने पर ही मन से किया गया संनिधि का अनुभव स्मृति को तरोताज़ा रखता है। विमुक्त होकर ही प्रेम में प्रगाढ़ता आती है-

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्।
मनस: सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया॥[1]

सचमुच गोपियाँ इसी स्थिति में पहुँच चुकी थीं। वे सर्वत्र श्रीकृष्ण का ही अनुभव करती थीं। तभी तो वे उद्धवजी से कहती हैं- यह वही यमुना नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखर पर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रासलीला करते थे और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चराने के लिये वे सुबह-शाम हम लोगों को देखते हुए आते-जाते थे और यह ठीक वैसी ही वंशी की तान हमारे कानों में गूँजती रहती है जैसी वे अपने अधरों के संयोग से छेड़ा करते थे। यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिमल उनके परम सुंदर चरणकमलों में चिह्नित है। हम इन्हें देखती रहती हैं। और ये भी हर क्षण श्रीकृष्ण को हमारी आँखो के सामने लाकर रख देते हैं। अब उद्धवजी तुम्हीं बताओ, हम उन्हें भूलें भी तो कैसे?

पुन: पुन: स्मारयंति नंदगोपसुतं बत।
श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं नैव शक्नुम:॥[2]

इस प्रकार कहा जा सकता है कि शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्यभाव की उपासना में शुकदेवजी को माधुर्य या कांताभक्ति ही अधिक प्रिय है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अनेक प्रकार के संवेगों का उदय, विकास तथा लयीकण इस भावोपासना में ही हो सकता है। लौकिक रति के उन्नयन का मार्ग भी इसी प्रक्रिया में मिल सकता है। 'वैष्णवन की वार्ता' के अनेक भक्तों का जीवन इस संदर्भ में उद्धृत किया जा सकता है। अत: संस्कृत हृदय भावुक भक्त को श्रीमद्भागवत का तह साधनापक्ष अंगीकार करना चाहिये। परमहंसवृत्ति का साधक ही इस साधना में सफल हो सकता है, अन्य को इस मार्ग पर चलने का अधिकार नहीं है।

आचार्य डॉ. श्रीविष्णुदत्तजी राकेश, विद्यासागर, विद्यावाचस्पति, पी-एच्.डी., डी. लिट्.


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।47।34
  2. श्रीमद्भा. 10।47।50

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