श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना
अजातपक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता:।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विष्ण्णा
मनोऽरविंदाक्ष दिदृक्षते त्वाम्॥[1]
श्रीमद्भागवत की माधुर्यपरक लीलाओं के चित्रण ने निम्बार्क, चैतन्य, हरिदासी, राधावल्लभीय तथा शुकसम्प्रदाय के साधकों को पूर्ण रूप से प्रभावित किया। श्रीजीवगोस्वामी ने 'प्रीति-संदर्भ' नामक ग्रंथ में भगवान की ऐश्वर्य तथा माधुर्यपरक लीलाओं में से माधुर्य लीला को सर्वश्रेठ बताया है। उनकी दृष्टि में मधुरोपासना सर्वोपरि साधन है।
'उज्ज्वलनीलमणि' ग्रंथ में कहा गया है कि रसराज श्रीकृष्ण और उनकी प्राणवल्लभा गोपियाँ माधुर्यभाव के आलम्बन हैं-
यहाँ सब बात ध्यान में रखने योग्य है कि काम तथा भगवत्प्रेम में अंतर है। जिन लोगों की बुद्धि परमेश्वर में लीन रहती है, उनमें कामनाएँ उत्पन्न होने पर भी सांसारिक भोगों की प्रवृत्ति नहीं होती। भगवद्विषयक रति वह अंगार है, जो मन के बीज को भून डालता है। जैसे भुने हुए अन्न में अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते, वैसे ही कृष्णासक्त मन में लौकिक कामनाओं को अंकुरित होने का अवसर ही नहीं मिलता। चरिहरण-प्रसंग में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोपियों से कहते हैं-
न मय्यावेशितधियां काम: कामाय कल्पये।
भर्तिजा क्विथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते॥[2]
यह भाव क्योंकि श्रीकृष्ण की प्रियता के लिये है, इसमें साधक की निजी भोगवृत्ति नहीं है। अत: लौकिक दृष्टि से दीखने वाला काम यहाँ प्रेम में परिणत हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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