श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना 5

श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना


मूर्तिमान श्रृंगार हरि, सब रस को आधार।
रस पोषक सब शक्ति ले, व्रज में करत विहार॥[1]

अर्थात भगवान से केवल सम्बंध हो जाना चाहिये। वह सम्बंध चाहे जैसा हो-काम का हो, क्रोध का हो या भय का हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य-निरंतर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान से ही जुड़ती हैं। इसीलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीव को भगवान की ही प्राप्ति होती है। सुबोधिनी में काम को स्त्रीभाव में तथा सौहार्द को सख्यभाव में निहित मानते हुए प्रथम स्थानीय-उपासनाभाव, कांताभाव या माधुर्य को तथा द्वितीय स्थानीयभाव सख्य को बताया गया है। इसीलिये यहाँ काम पहले तथा सख्य अंत में आया है। जीव का कल्याण भगवान से सम्बंध स्थापित करने में है, वह सम्बंध चाहे जैसा हो। भगवन्मय वृत्तियाँ परमतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होती हैं। इनमें प्रबल वृत्ति काम है। अत: मधुरोपासना को भावदृष्टि से भावदृष्टि से श्रेष्ठ साधन समझाना चाहिये, ऐसी श्रीशुकदेवजी की स्थापना है।

भागवत में काम को दैहिक स्तर पर स्वीकार नहीं किया गया, वह भाव के स्तर पर अनुराग का रूपधारण करता है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का कथन है कि इस संसार में उनका अंग-संग ही मनुष्यों में प्रीति या अनुराग का कारण नहीं है। इसीलिये याज्ञिकों की पत्नियों को लौट जाने का आदेश देते हुए वे कहते हैं- 'हे ब्राह्मणपत्नियों! तुम जाओ और अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी।'

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यगंसंगो नृणामिह।
तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥[2]

शुकदेवजी पति के द्वारा बलपूर्वक रोकी गयी एक मधुरोपासिका ब्राह्मणपत्नि की चर्चा इस प्रसंग में करते हैं तथा श्रीकृष्ण के वाक्य की पुष्टि में कहते हैं कि उस ब्राह्मणपत्नि ने श्यामसुंदर के सुने हुए रूपमाधुर्य का ध्यान करते हुए मन-ही-मन उनका आलिगंन किया तथा शरीर का विसर्जन कर दिया-

तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवंतं यथाश्रुतम्।
हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबंधनम् ॥[3]

वेणुगीत की पृष्ठभूमि में भी गोपियों के भावजगत में विहार का चित्रण शुकदेवजी करते हैं। श्रीकृष्ण के नटवर रूप की कल्पना में आकर्षण की पराकाष्ठा निहित है। भगवान से मिलने की आकांक्षा ने गोपियों के मनोराज्य में वृन्दावन विहारी को लाकर खड़ा कर दिया। मनसा प्रत्यक्षीकरण की इस प्रक्रिया में उन्होंने वंशीध्वनि भी सुन ली और फिर वे इतनी तन्मय हो गयीं कि श्रीकृष्ण को पाकर उनका आलिगंन करने लगीं। यहाँ 'स्मरंत्य: कृष्णचेष्टितम्' पर यदि ध्यान देगें तो भावलोक का सौंदर्य पकड़ में आ जायगा।


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।29।15
  2. श्रीमद्भा. 10।23।32
  3. श्रीमद्भा. 10।23।34

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः