श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना
इस पर शुकदेवजी की टिप्पणी है- गोपियों ने अपने प्यारे श्यामसुंदर के लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्ण में उनका अनंत अनुराग तथा परम प्रेम था। गोपियाँ यह निश्चय कर चुकी थीं कि आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष भी उनसे ही प्रेम करते हैं-
प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाशमाणं
कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामा:।
कुर्वंति हि त्वयि रतिं कुशला: स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदै: किम्।[1]
श्री शुकदेवजी स्वयं निकुञ्जसेवी थे भुशुण्डिरामायण (99। 73। 74) में उन्हें सखी रूप में प्रस्तुत किया गया है-
असौ मुनिर्नित्यविलासदर्शने
कुतूहली श्रीजनकात्मजाया:।
सखीपदं प्राप्य निकुञ्जराज्ये
प्रियेण साकं रमते सदैव॥
यही नहीं, वे राजा दशरथ को व्रज के प्रमुख रसस्थानों का दर्शन कराने के बाद वहीं निकुञ्जलीला में भाग लेने के लिये अंतर्धान भी हो जाते हैं। ब्रह्माजी भुशुण्डिरामायण में कहते हैं-
इति व्रजं दर्शयित्वा राज्ञे दशरथाय स:।
तस्मिन्नेव निकुञ्जांत: पश्यतोऽन्तर्दधौ शुक:॥
श्रीशुकदेवजी नित्य वृन्दावन धाम की निकुञ्जलीला को उपास्य मानते हैं। साधकों के लिये यह लीला प्रकट और संसारी जीवों के लिये अप्रकट मानी गयी है। साधक का निस्संग आनंदानुभव ही इसका प्रयोजन है। केवल गोपीभाव में निस्संग सुखानुभव के लिये कोई स्थान नहीं है। श्रीशुकदेवजी श्रीसीता-राम तथा श्रीराधा-कृष्ण के निकुञ्जविहार के निस्संग साक्षी हैं, वे प्रिय-प्रियतमा के नित्यविहारदर्शन अभिलाषी हैं। शुकदेवजी की मधुरोपासना इतनी उज्ज्वल और प्रगाढ़ है कि श्रीराम भक्ति के तथा श्रीकृष्ण भक्ति के रसिक सम्प्रदाय वाले समान भाव से उन्हें प्रणाम मानते हैं। चाहे श्रीसीता-राम हों या श्रीराधा-कृष्ण हों, है तो अद्वयतत्त्व का ही द्वोधा रूप।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 29। 30, 33
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