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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘लँगर मोरि गागर फोरि गयौ’अहा! श्रीकृष्ण निपट निःशंक होकर तुम्हारी नयी चुनरी चीर-चीरकर डालते, हैं! गोपी! तुम इससे नाराज क्यों होती हो? सच बताओ, क्या तुमने यह चुनरी इसी कामना से नहीं ओढ़ी थी श्यामसुन्दर आयें और तुम्हारी इस दुनियावी चुनरी के टुकड़े-टुकड़े कर डालें? तुम तो सच्चिदानन्दघन नित्य-नवकिशोर श्रीकृष्ण की प्रिया सदा सुहागिन हो न? फिर तुम इस अनित्य सुहाग का परिचय देने वाली दुनियावी चुनरी को कैसे ओढ़े रहती? तुम्हें तो उस दिव्य चुनरी की चाह है, जो कभी किसी भी काल में न पुरानी होती है और न उतरती ही है। हाँ, तुम्हारा यह अनोखा नाज अवश्य है कि तुम इस दुनियावी चुनरी को अपने हाथों नहीं फाड़ती। तुम्हारे प्रेमबल से यह काम भी श्रीकृष्ण को ही करना पड़ता है। तुम्हारे मार्ग का अनुसरण करती हुई गिरधर-गोपाल की मतवाली मीरा ने तो अपने ही हाथों दुनियावी चुनरी के टूक-टूक कर डाले थे। ‘चुनरी के किए टूक, ओढ़ लीन्हीं लोई।’ गोपी के दिल दरवाजे पर-एकमात्र श्रीकृष्ण के लिये ही खुले द्वार पर श्रीकृष्ण को संकोच या डार किस बात का हो? हाँ, वहाँ तो श्रीकृष्ण अवश्य सकुचा जाते हैं- बल्कि जाकर भी वापस लौट आते हैं, जहाँ भीतरी दिल का दरवाजा बंद होता है या उसमें दूसरों को भी जाने की अनुज्ञा होती है; पर तुम्हारा तो सभी कुछ श्रीकृष्ण का है न? तुम तो अपना तन-मन-धन, लोक-परलोक, सर्वस्व श्रीकृष्ण के चरणों पर ही न्योछावर कर चुकी हो न? तुम्हारे सब कुछ के एकमात्र स्वामी-आत्मा के भी आत्मा केवल श्रीकृष्ण ही तो हैं। फिर वे अपनी निज की सम्पत्ति पर अधिकार करने में ‘निपट निडर’ क्यों न हों? और क्यों न तुम्हारी प्रेमभरी विपरीत चेष्टा पर प्रणयकोप करके आँखें दिखायें? ओहो! श्रीकृष्ण ने अपने दोनों कर कमलों से पकड़कर तुम्हारी अति कोमल बाँहों को मरोड़ दिया! अरे-विषयों की गुलामी में लगे हुए इन पामर प्राणियों की भुजाएँ न जाने किन-किन पात की चरणों की सेवा में लगी हैं! न जाने अब तक इन हमारी भुजाओं ने कैसे-कैसे दूषित हृदयों का आलिगंन कराया है! हमारी ये असती भुजाएँ कभी प्यारे श्रीकृष्ण की सेवा के लिये नहीं ललचायीं! प्रियतम श्यामसुन्दर को अँकवार में भरने के लिये आकुल होकर ये कभी नहीं फैलीं। गोपी! तुम्हारी भुजाएँ तो सती हैं, वे विषयों से सर्वथा विमुख हैं। वे एक श्रीकृष्ण को छोड़कर और किसी के लिये कभी नहीं फैलतीं। इसी से श्रीकृष्ण आते हैं। और तुम्हारी अन बाँहों को पकड़कर, अहाहा! अपने दोनों हाथों से पकड़कर तुम्हें अपने हृदय के एकान्त मन्दिर में विराजित कर लेना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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