श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवदवतार का रहस्यवास्तव में भगवान का प्रेमी भक्त सब कष्टों से परे पहुँचा हुआ होता है; उसका जीवन भगवत्सेवामय होता है। वह सेवा को छोड़कर मुक्ति भी नहीं चाहता। मुक्ति तो वह चाहता है, जो किसी बन्धन का अनुभव करता हो। भगवत्प्रेम का बन्धन तो सारे बन्धनों के छूट जाने पर होता है और इस प्रेम बन्धन से भक्त कभी मुक्त होना चाहता नहीं। जो इस प्रेम बन्धन से मुक्ति चाहता है, वह भक्त कैसा? इसी से कहा गया है- अर्थात् भक्तजन देने पर भी मेरी सेवा को छोड़कर मुक्ति आदि को स्वीकार नहीं करते। एक वैष्णव-ग्रन्थ में श्रीमती राधाजी कहती हैं कि ‘ऐसा मन होता है, मेरे लाखों आँखें हों तो श्याम सुन्दर के दर्शन का कुछ आनन्द आये। लाखों कान हों तो श्याम नाम के श्रवण सुख मिले।’ यह कोई कल्पना नहीं है। प्रेम वस्तु ही ऐसी है। जिस दिन हमारा भगवान में प्रेम हो जायगा, उस दिन उनका नाम हमें इतना प्यारा होगा कि वह हमारे जीवन की सबसे बढ़कर आवश्यक वस्तु बन जायगा। जब तक हमारा भगवान में प्रेम नहीं होता, तभी तक हमें माला आदि की आवश्यकता है। प्रेम होने पर तो प्रियतम के नामोच्चारण मात्र से हमारी नस-नस नाच उठेगी। हम अपने प्रियतम के प्रेम में इतने उन्मत्त हो जायँगे कि हमारे रोम-रोम से भगवान मात्र की ध्वनि होने लगेगी। अनन्य प्रेमीजन जब एकत्रित होकर अपने प्राण स्वरूप प्रियमत की चर्चा करते हैं, उस समय प्रेम सागर उमड़ पड़ता है। तब वे चेष्टा करने पर भी नहीं बोल सकते, उनका कण्ठ रूक जाता है, शरीर पुलकित हो जाता है, रोम-रोम से प्रेम की किरण धाराएँ निकल कर उस स्थान में निर्मल प्रेम ज्योति फैला देती हैं। वहाँ का वातावरण अत्यन्त विशुद्ध और प्रेममय हो जाता है। उस समय वे प्रेमी भक्त प्रेम विह्ल होकर आँखों से प्रेम के आँसुओं की धारा बहाते हुए परमानन्द में मग्र हो जाते हैं। यह स्थिति बहुत ही दुर्लभ और परम पवित्र होती है; जिन भाग्यवानों को यह अवस्था प्राप्त हो जाती है, उन सब के कुल तो पवित्र होते ही है; उनके अस्तित्व से पृथ्वी भी पवित्र हो जाती है। उस समय उन पवित्र प्रेमस्वरूप भक्तों के तन से स्पर्श की हुई तनिक- सी वायु जिस के शरीर को स्पर्श कर लेती है, वह भी पवित्र हो जाता है। |
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- ↑ श्रीमद्भा0 3 ⁄ 21 ⁄13
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