श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेमसम्बन्धी कुछ बातेंवे तो बहुत ही ऊँचे स्वर की साधना के फलस्वरूप होती हैं। उनमें-हमारे अन्दर पैदा होने वाली भोग-वासना की सूक्ष्म और स्थूल तमोगुणी वृत्तियों का कहीं लेश भी नहीं होता। बहुत ऊँची स्थिति में पहुँचे हुऐ महात्मा लोग ही उनका अनुभव कर सकते हैं, वे कथन में आने वाली चीजें नहीं हैं- कहना-सुनना तो दूर रहा, हमारी मोहाच्छन्न् बुद्धि उनकी कल्पना भी नहीं कर सकती। भगवत्कृपा से ही उनका अनुमान होता है तभी उनकी अस्पष्ट-सी झाँकी होती हैं। इस अस्पष्ट झाँकी में ही उनकी इतनी विलक्षणता प्रतीत होती है कि जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि ये चीजें दूसरी ही जाति की हैं। नाम एक-से हैं- वस्तुगत भेद तो इतना है कि उनसे हमारी लौकिक वत्त्तियों का कोई सम्बन्ध ही नहीं जोड़ा जा सकता, तुलना ही नहीं होती। भगवान की कृपा से- इस प्रेम मार्ग में कौन कितना आगे बढ़ा होता है, कौन किस स्तर पर पहुँचा होता है, यह बाहर की स्थिति देखकर कोई नहीं जान सकता; क्योंकि यह वस्तु बाहर आती ही नहीं। यह तो अनुभव रूप होता है। जो बाहर आती है, वह तो प्रायः नकली होती है। जिसे हम अप्रेमी मानते हैं, सम्भव है वह महान प्रेमी हो। जिसे हम दोषी समझतें हैं, सम्भव है वह प्रेममार्ग पर बहुत आगे बढ़ा हुआ महात्मा हो; और जिसे हम प्रेमी समझ बैठते हैं, सम्भव है वह पार्थिव मोह में ही फँसा हों। भगवत्प्रेमियों को कोटिशः नमस्कार है। उनकी गति वे ही जानें। सीधी और सरल बातें जो करने की हैं, वे तो ये सात है-
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