श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण-लीलानुकरण हानिकारकअखिलरससागर रसराजशिरोमणि जगत्पति श्रीकृष्ण की प्रेयसी इन महाभाग्यवती दिव्यविग्रहधारिणी गोपियों में कुछ तो ‘नित्यसिद्धा’ हैं, जो अनादिकाल से भगवान् श्रीकृष्ण के साथ दिव्य लीला-विलास करती हैं। कुछ पूर्वजन्म में श्रुतियों की अधिष्ठात्री देवता हैं, जो ‘श्रुतिपूर्वा’ कहलाती हैं; कुछ दण्डकारण्य के सिद्ध ऋषि हैं, जो ‘ऋषिपूर्वा’ के नाम से ख्यात हैं और कुछ स्वर्ग में रहने वाली देव कन्याएँ हैं, जो ‘देवीपूर्वा’ कहलाती हैं। पिछले तीनों वर्गों की गोपिकाएँ ‘साधनसिद्धा’ हैं। नित्य-सिद्धा गोपीजनों में श्रीराधाजी मुख्य हैं और चन्द्रावलीजी, ललिताजी, विशाखाजी आदि उन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं; ये ‘गोपकन्या’ कहलाती हैं। साधनसिद्धा गोपियाँ पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण-सेवा-लालसा से साधन सम्पन्न होकर इस जन्म में गोपीगृहों में अवतीर्ण हुई थीं और नित्यसिद्धा गोपीजनों के सत्संग, सहयोग और सेवन से दिव्यरूपता को पाकर इन्होंने श्रीकृष्ण का दिव्य चरण-सेवाधिकार प्राप्त किया था। न तो ये गोपियाँ परस्त्रियाँ थीं और न अखिल विश्वब्रह्माण्ड के स्वामी, आत्माओं के आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण ही परपुरुष या उपपति थे। प्रेम-रसास्वादन के लिये- प्रेममार्ग के साधन की अत्युच्च भूमिका के शिखर पर महात्माओं को भगवत्कृपा से जो सिद्धिरूपा चरमानुभूति होती है, उसी अतुलनीय दिव्य प्रेम का वितरण करने के लिये ‘जगत्पति’ ने ‘उपपति’ का और उनकी नित्यसंगिनी नित्यकान्तास्वरूपा शक्तियों ने ‘परस्त्री’ का साज सजा था। यह रास- यह गोपी-गोपीनाथ का मिलन हमारे मलिन मिलन की तरह गंदे कामराज्य की वस्तु नहीं है, पान्चभौतिक देहों के गंदे काम-विकार का परिणाम नहीं है। यह तो परम अद्भुत, परम विलक्षण- जिसकी एक झाँकी के लिये बड़े-बड़े आत्मज्ञानी कैवल्य-प्राप्त महापुरुषगण तरसते रहते हैं- दिव्य लीला है। इसका अनुकरण कोई भी मनुष्य कदापि नहीं कर सकता, चाहे वह कितनी ही ऊँच स्थिति में हो। इस लीला का अनुकरण करने जाकर जो पर-स्त्री और पर-पुरुष परस्पर प्रेम का सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं, वे तो घोर नरक-यन्त्रणा की तैयारी करते हैं। सचमुच उनमें सच्चा प्रेम है ही नहीं। वे तो तुच्छ काम के गुलाम हैं और प्रेम के नाम को कलंकित करते हैं। सच्चा प्रेम तो एक श्रीभगवान् से ही होता है। प्रेम में प्रेम के सिवा और कोई कामना-वासना रहती ही नहीं। जगत् में परोपकारतक के कार्यों में आत्मतृप्ति की एक वासना रहती है। जगत् का कोई भी जीव आत्मेन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा बिना- चाहे वह अत्यन्त ही क्षीण हो- किसी से प्रेम नहीं करता और जिसमें आत्मेन्द्रिय-तृप्ति की वासना है, वह प्रेम प्रेम नहीं है। |
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