श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण-लीला के अन्ध-अनुकरण से हानिभगवान के सच्चे मन से लिये हुए एक नाम से ही जब सारे पापों का समूह भस्म हो जाता है, तब भगवान के चरण सेवकों में तो पाप-प्रवृत्ति रह ही कैसे सकती है? वैराग्य और त्याग तो भगवद्भक्ति की आधार-शिला हैं। जो अपने मन से विषयों को त्याग नहीं करता, भोगों की स्पृहा नहीं छोड़ता, वह भगवान का भक्त ही कैसे बन सकता है? भक्त को तो अपना सर्वस्व, लोक-परलोक और मोक्ष तक भगवान के चरणों पर निछावर करके सर्वथा अंकंचन बन जाना पड़ता है। भगवत्प्रेमी भोगी कैसे हो सकता है? अतएव जो भगवत्प्रेम के नाम पर भोग का उपदेश करते हैं, उनसे और उनके उपदेशों से सदा सावधान रहना चाहिये। दुःख की बात है कि श्रीमद्भागवत की रासपन्चाध्यायी का भ्रान्त-अनुकरण करने जाकर काम-वासना से स्त्रियों से मिलने-जुलने में तो कोई आपत्ति नहीं मानी जाती, यहाँ तो भगवान के लीला-अनुकरण का नाम लिया जाता है, परंतु उस श्रीमद्भागवत के ‘स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्’ - आत्मवान् को चाहिये कि वह स्त्रियों के ही नहीं, स्त्रीसंगियों के संग को भी दूर से त्याग दें- इस उपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। श्रीमद्भागवत और श्रीकृष्ण प्रेम के एवं माधुर्य रस के मर्म को समझने वाले तो श्रीचैतन्य महाप्रभु थे, जो मधुर रस के उपासक होकर भी धन और स्त्री से सर्वथा दूर रहते थे। यद्यपि कई कारणों से आजकल प्रकट में प्रायः ऐसी पाप-क्रियाएँ कम होती हैं, फिर भी गुप्त रूप से इन भावों का प्रचार और प्रसार अब भी कम नहीं है। ये भक्ति और भगवत्प्रेम के विधातक हैं। कवियों ने व्यास शुकदेव के मर्म को न समझकर अपनी-अपनी भावना के अनुसार मनमानी रचना की; तपस्वी, भक्त और मर्मज्ञ पुरुषों को छोड़कर शेष गुरु, भक्त और उपदेशक कहलाने वाले लोगों ने मनमाना कथन और कार्य किया। श्रृंगार के गंदे-गंदे गीतों में श्रीकृष्ण और श्रीराधा का समावेश किया गया और दुष्ट विषयी पुरुषों ने इन लीलाओं की आड़ लेकर पाप की परम्परा चला दी। इससे हिंदू-जाति का जो घोर अमंगल हुआ है, उसकी कोई सीमा नहीं है। अब भी सब लोगों को चेतकर भगवान श्रीकृष्ण की गीता के दिव्य उपदेश के अनुसार अपने जीवन को बनाना चाहिये। भगवान के इन शब्दों को सर्वथा और सर्वदा याद रखना चाहिये-
काम, क्रोध और लोभ - ये तीन नरक के दरवाजे और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं; इसलिये इन तीनों को सर्वथा त्याग देना चाहिये। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ गीता 16। 21
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