श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चीरहरण-रहस्यसाधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है-पूर्ण समर्पण की तैयारी! उसे पूर्ण तो भगवान ही करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब लीला प्रकट करते हैं, तब वे मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता। परंतु हृदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी हलका कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके नग्न-स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये। वैसी भक्ति का पर्यवसान रागात्मि का भक्ति में है और रागात्मि का भक्तिपूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मि का भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीरहरण के द्वारा वही कार्य सुसम्पन्न होता है। गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, जिनका प्राप्ति के लिये ही उनका यह महान अनुष्ठान है, जिनके चरणों में उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनसे निरावरण मिलन की ही एकमात्र अभिलाषा उनके मन में है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान श्रीकृष्ण के सामने वे निरावरण भाव से न जा सकें-क्या यह उनकी साधना की अपूर्णता नहीं है? है, अवश्य है और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरण रूप से उनके सामने गयीं। श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वे ही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है, जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। वे ही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियों के, गोपों के और निखिल विश्व के वे ही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्हीं की उपासना करते हैं। |
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