श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नित्य लीला के समझने का अधिकारव्यतिरेक और अन्वय-दोनों प्रकार से ही ब्रह्म ज्ञान की साधना होती है। जगत् को सर्वथा वस्तु शून्य समझना ‘व्यतिरेक’ साधना है और चेतना चेतनात्मक समस्त विश्व में एक चेतन अखण्ड परिपूर्ण ब्रह्म सत्ता का अनुभव करना ‘अन्वय’ साधना। दोनों साधनाओं के समन्वय से जो ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, ‘नेह नानास्ति किंचन’ तत्त्व की प्रत्यक्षानुभूति होती है, वही ब्राह्मी स्थिति है। यही श्रीभगवान का सच्चिदानन्दमय ब्रह्मस्वरूप है। इसके जान लेने पर ही समग्र पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमलीला या व्रजलीला के समझने का अधिकार प्राप्त होता है। दिव्य हृदय और दिव्य नेत्रों के बिना व्रजलीला के समझने का अधिकार प्राप्त होता है। विविध साधनाओं के द्वारा हृदय जब समस्त संस्कारों से शून्य होकर शुद्ध सत्त्व में प्रतिष्ठित हो जाता है और जब सम्पर्ण विश्व में एक अखण्ड अनन्त सम रस सर्वव्यापक सर्वरूप अव्यक्त ब्रह्म की साक्षात् अनुभूति होती है, तभी प्रेम की आँखें खुलती हैं, तभी भगवान की लीला के यथार्थ और पूर्ण दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है और तभी प्रेमी भक्त का भगवान के साथ पूर्णैक्यमय मिलन होता है। यही ज्ञान की परा निष्ठा है-‘निष्ठा ज्ञानस्य या परा।’[1] श्रीभगवान ने स्वयं कहा है-
‘साधक जब प्रसन्न-अन्तः करण होकर ब्रह्म में स्थित हो जाता है, जब उसे न तो किसी बात का शोक होता है और न किसी बात की आकांक्षा ही, समस्त प्राणियों में उसका सम भाव हो जाता है, तब उसे मेरी पराभक्ति-पूर्ण प्रेम प्राप्त होता है और उस पराभक्ति के द्वारा मुझ भगवान के तत्त्व को-मैं जो कुछ और जितना कुछ हूँ-वह पूरा-पूरा जान लेता है और इस प्रकार तत्त्व से जानकर वह तुरंत ही मुझमें मिल जाता है(मेरी लीला में प्रवेश करता है)।’ यह ब्रह्मज्ञान और यह पराभक्ति-केवल ऊँची-ऊँची बातों से नहीं मिलती। निरी बातों से तो ब्रह्मज्ञान के नाम पर मिथ्या अभिमान और भक्ति के नाम पर विषय-विमोह की प्राप्ति ही होती है। सत्संग, साधुसेवन, सद्विचार, वैराग्य, भजन, निष्काम कर्म, यम-नियमादि का पालन और तीव्रतम अभिलाषा होने पर ही इनकी प्राप्ति सम्भव है। भगवत्कृपा की तो शरीर में प्राणों की भाँति सभी साधनाओं में अनिवार्य आवश्यकता है। |
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