श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भाव-राज्य की महिमाध्यान में मनुष्य यह देख सकता है कि हमने भगवान के चरण पकड़ लिये, उन्होंने हमारे मस्तक पर हाथ रख दिया। साधक भक्त की दृष्टि में ये सारी बातें सत्य हैं; पर जब तक ये सब मन की कल्पना से बने हुए स्वरूप हैं, तब तक वे भावनाजनित ही हैं। जैसे स्वप्न के मनोराज्य में किसी और के न होते भी हम स्पर्श का अनुभव करते हैं, शब्द सुनते हैं, रूप देखते हैं, गन्ध सूँघते हैं, रस का आस्वादन करते हैं, उसी प्रकार भाव-जगत में भी दृढ़ भावना के द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि का भलीभाँति अनुभव कर सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। यह भी ध्यान की बहुत ऊँची और अत्यन्त कल्याणप्रद स्थिति होती है, पर इससे परे सच्चे प्रेमराज्य में रसराज श्रीभगवान के प्रत्यक्ष दर्शन भी हो सकते हैं। भगवद्दर्शन की भावना को किसी प्रकार के भी तर्क से प्रमाणित करना कठिन है। अविश्वासी को भगवद्दर्शन की बात समझा देना असम्भव-सा है। श्रद्धा और विश्वास ही तो साधना का मूलमन्त्र है। भक्त जिस रूप में भगवान को देख रहा है, हो सकता है वह शास्त्रों में प्रकट न हो। साथ ही यह भी सम्भव है कि शास्त्रों में भगवान के जिस रूप का वर्णन है, उस रूप में भगवान किसी भक्त को दर्शन न दें और एक साधारण वेष में ही प्रकट हो जायँ। भगवान का रूप कैसा? जैसा भक्त चाहे वैसा। भक्त की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही रूप लेकर भगवान उपस्थित हो जाते हैं। इसके सिवा दिव्यधामों में लीलाविहार करने वाले भगवान के नित्यरूप भी हैं, जो हमारी कल्पना में आयें या न आयें। इन स्वरूपों के दर्शन भी कृपा पात्र प्रेमी भक्तों को हुए हैं और हो सकते हैं। कभी-कभी किन्हीं-किन्हीं अभिमानी दर्शनोत्सुक भक्तों को मार्गच्युत करने के लिये या उनकी परीक्षा करके उनमें और भी दृढ़ता लाने के लिये उपदेवता भी विभिन्न रूपों में उनके सामने आ सकते हैं और अपने को भगवान बताकर उनको भ्रम में डालने की चेष्टा कर सकते हैं। ऐसे अनुभव भी सुनने में आये हैं कि कोई-कोई खेचर उपदेवता सकामभाव से किसी इष्ट-विशेष के उपासकों को उस रूप में आकर ठगने की चेष्टा करते हैं। हमने भूतलपर जो तेज देखा है, उससे कई गुना अधिक तेज उन उपदेवताओं का ही होता है। वे आकर हमारे इष्टदेव की मूर्ति में उपस्थित होकर हमें ठग लेते हैं। भय के रूप में जिस प्रकार देवताओं का विघ्न आता है, उसी प्रकार लोभ के रूप में भी आता है। ध्रुव के सामने उपदेवता उसकी माता के लोभनीय रूप में आये-‘बेटा! मैं बहुत दुःखी हूँ-मैं जल रही हूँ, मुझे बचाओ।’ पर ध्रुव अपनी साधना से टले नहीं। जो भगवान का शरणागत भक्त होता है, उसके सारे विघ्नों का तो नाश स्वयं प्रभु अपने अनुग्रह से ही कर डालते हैं- |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज