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श्रीराधा-कृष्ण की उपासना
सप्रेम हरिस्मरण! तुम्हारा पत्र मिला था। उत्तर लिखने में देर हुई, इसके लिये क्षमा करना।
तुमने श्रीकृष्ण-युगलस्वरूप की मधुर रागमयी आराधना के विषय में पूछा सो ठीक है। यह विषय यद्यपि लिखने-पढ़ने का नहीं है, संलग्न होकर-तन्मय होकर करने का है और इसके जानने-बतलाने वाले भी विशेष अधिकारी ही होते हैं-मैं स्वयं इसका पूरा जानकार नहीं तथा करने में तो त्रुटि-ही-त्रुटि है। इसलिये इस विषय में मेरा कुछ भी लिखना अनधिकार-चेष्टामात्र है; तथापि तुमने आग्रह से पूछा है और इसी बहाने प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-माधव की किंचित् स्मृति हो जायगी-यह समझ कर कुछ लिख रहा हूँ। ध्यान से पढ़ना और समझ में आये तो करने का प्रयत्न करना।
यह निश्चय करना चाहिये कि एकमात्र श्रीराधा-कृष्ण ही मेरी परमगति हैं, वे ही एकमात्र मेरे प्राणों के आराध्य हैं, वे ही मेरे प्राणवल्लभ हैं। जैसे मछली जल को ही सब कुछ मानती है, जैसे चातक मेघ को ही जानता है, जैसे सती एकमात्र पति को ही पुरुष रूप में पहचानती है, उसी प्रकार एकमात्र श्रीराधा-गोविन्द ही मेरे सर्वस्व हैं और श्रीराधा-गोविन्द-युगल के प्रेमसुधा-रस-सुख-सागर में नित्य निमग्न होकर जो नित्य-निरन्तर उनके सुख-संविधान रूप परिचर्या में लगी रहती हैं- वे महाभाग्यवती व्रजगोपियाँ ही मेरे प्राण हैं तथा मेरे जीवन की कला हैं एंव परम आदर्श गुरु हैं।
श्रीराधा-माधव-युगल किशोर का अनिर्वचनीय अनन्त विश्वविमोहन मोहन रूप-सौन्दर्य कोटि-कोटि मदन और कोटि-कोटि रतियों के निरुपम रूप सौन्दर्य को सहज तिरस्कृत करता है, वस्तुतः उसके साथ किसी की तुलना ही नहीं की जा सकती। श्रीनन्दनन्दन एंव श्रीवृषभानुनन्दिनी सच्चिदानन्द-सौन्दर्य-सुधानिधि हैं। वे अनन्तैश्वर्य, अनन्त सौन्दर्य, अनन्त माधुर्य, अनन्त शक्ति और अनन्त रस से परिपूर्ण हैं। श्रीराधा मानो दिव्य निरुपम निरुपाधि चिन्मय स्वर्णकेतकी पुष्प हैं और श्रीश्यामसुन्दर दिव्य निरुपम निरुपाधि चिन्मय नीलकान्तिमय समुज्ज्वल मरकत-मणि हैं। उनका अलौकिक प्रतिक्षण नव-नवायमान परम मधुर रूप सौन्दर्य कल्पनातीत अनन्तानन्त सौन्दर्य-राशि का गर्व सतत खर्व कर रहा है।
सर्वश्रेष्ठ नायक और नायिका के शास्त्रवर्णित समस्त गुणों की सीमा को पार करके निश्शेष निस्सीम अनन्त विचित्र मधुर गुणगण श्रीराधा-माधव में नित्य विराजित हैं। दोनों के ही गुणों से दोनों नित्य मुग्ध हैं। अश्रु-पुलकादि सात्त्विक-भावरूप आभूषणों से दोनों के ही श्री अंग नित्य सुशोभित है। वे परस्पर एक-दूसरे के भावों से विभावित हैं। उन्होंने अपने सारे अंगों-अवयवों में मानों भावमय अलंकार धारण कर रखे हैं। वस्तुतः उनके परस्पर के अन्तर्गत दिव्य मधुर प्रेमोज्ज्वल भाव ही बाहर समस्त अंगों में आभामय अलंकारों की भाँति झिलमिल रहे हैं। श्रीराधिकाजी ने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर के प्रेम में मुग्ध होकर उनकी नीलवर्ण अंगकान्ति को अपने अंग का भूषण बनाने के लिये नीलवर्ण वसन पहन रखा है और श्रीश्यामसुन्दर ने प्रियतमा श्रीराधिका जी के प्रेम में मुग्ध होकर उनकी स्वर्ण वर्ण अंगकान्ति को अपने अंग का भूषण बनाने के लिये विद्युत्-वर्ण पीत वसन धारण कर रखा है। नील चीरधारिणी श्रीवृषभानुनन्दिनी और पीतवसनधारी श्रीश्यामसुन्दर दोनों ही अपने-अपने अन्तर के मधुरतम भावों से एक-दूसरे के प्रति लोलुप होकर जिस निरुपम निरुपाधि अवर्णनीय शोभा-सौन्दर्य को धारण किये हुए हैं, वह सर्वथा वर्णनातीत है। नित्य एक ही परम तत्त्व नित्य दो बनकर परस्पर मधुरतम सुख-संविधान में संलग्न है।
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