श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
राधा-कृष्ण की अभिन्नता तथा राधा प्रेम की विशुद्धता
(1) दिन में श्रीराधारानी भगवान् श्रीकृष्ण की ही स्वरूपाशक्ति हैं। वे श्रीकृष्ण की ही अभिन्न स्वरूपा हैं। इसी प्रकार श्रीकृष्ण श्रीराधा के अभिन्न स्वरूप हैं। इनकी यह रसमधुर लीला सत्य और नित्य है। वस्तुतः लीला तथा लीलामय भी अभिन्न ही हैं। तत्त्व और लीला एक ही स्वरूप की दो दिशाएँ हैं। तत्त्व में जो अव्यकत है, वही लीला में परिस्फुट है। तत्त्व में जो बीज है, वही लीला में विशाल विशद वृक्ष है। दूसरे शब्दों में, तत्त्व लीलारूप अक्षय सरोवर का एक जलविन्दु है। लीला तत्त्व का प्रकट विग्रहरूप है, तत्त्व की समग्रता ही लीला है। लीला का निगूढ रहस्य ही तत्त्व है। एक ही परम नित्यानन्द रसब्रह्म-तत्त्व नित्य अखण्ड रहकर ही आस्वाद्य और आस्वादक रूप से दो रूपों में अभिव्यक्त होकर लीलायमान है— एक व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण और दूसरा वृषभानुदुलारी श्रीराधा। श्रीकृष्ण रसमय हैं और श्रीराधा भावमयी हैं। रति की दृष्टि से श्रीराधारानी मूर्तिमान् अधिरूढ़ महाभावरूपा या मधुरा रति की सजीव प्रतिमा हैं। मदीया रति यानी ‘श्रीकृष्ण मेरे हैं’ यह भाव ही गोपीभाव है। इसी भाव की चरम परिणति महाभाव स्वरूपिणी वृषभानुनन्दिनी श्रीराधारानी हैं। मदीया रति की चरम और परम पूर्णतम परिणति में शक्तिमान् श्रीकृष्ण निज स्वरूपाशक्ति श्रीराधारानी के प्रति सोल्लास आत्मसमर्पण करते हैं— ‘धेहि पदपल्लवमुदारम्।’ कायव्यूहा-शक्तिरूपिणी व्रजदेवियों के सहित शक्ति और शक्तिमान् का यह नित्य मधुर लीला विलास ही निम्य महारास है। इस मधुरातिमधुर अनन्त विचित्र महारास की आत्मा, अखिल आनन्द-चिन्मय-रसामृतरूपिणी श्रीराधारानी हैं। श्रीराधाभावा की साधना जगत् के कामराज्य की वस्तु तो है ही नहीं, उसकी अत्यन्त विरोधिनी है। श्रीराधारानी के स्वरूपतत्त्व का अध्ययन और श्रीराधाभाव का साधन काम के कलुष को सदा के लिये धो डालने वाला है। इतना होने पर भी यह शुष्क नहीं है, नीरस नहीं है, चित्त में खिन्नता उत्पन्न करने वाला नहीं है, निदारुण निर्वेदजनक नहीं है। यह रसमय है, आनन्दमय है, छविमय है, मधुरिमामय है और मोक्षतिरस्कारी दिव्य भगवद्भाव को प्राप्त कराने वाला है। इसमें आत्यन्तिक विषय-विराग है, पर वह भी एक मधुर राग है। प्रेमी साधक इस राग के रसिक होते हैं। महात्मा गोकर्णजी ने इसी ओर संकेत करते हुए— ‘वैराग्यरागरसिको भव’ कहा है। कामरूप अन्धकार का प्रभाव वहीं तक है, जहाँ तक दिव्य गोपीभाव या राधाभाव का निर्मल भास्कर उदय नहीं होता। |
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