श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सबसे पहले भगवान का स्वरूप समझना चाहिये। स्वरूपभूत दिव्यगुण विशिष्ट भगवान में लौकिक गुणों का- जो प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुण विकार हैं- सर्वथा अभाव है, इसलिये वे निगुर्ण हैं। भक्तों के परम आदर्श, लोक संग्रह के आचार्य और विश्व के भरण-पोषण-कर्ता होने से वे समस्त सात्त्विक गुणों को अपने में धारण करते हैं, इसलिये वे अशेषसद्गुणालंकृत हैं प्रकृति के द्वारा अखिल जगद्रुप में उन्हीं का प्रकाश होने के कारण वे समस्त सदसद्गुण सम्पन्न हैं। भगवान ही समस्त विश्व के निमित्त और उपादान कारण हैं। इस दृष्टि से संसार के सभी भाव उन्हीं से उत्पन्न होते हैं,[1] सभी भावों का सम्बन्ध उनसे जुड़ा हुआ है। इतना होने पर भी उनके स्व -स्वरूप में कोई दोष नहीं आता। उनके द्वारा सब कुछ होने पर भी वे किसी के बन्धन में नहीं हैं।[2] किसी दृष्टि विशेष के हेतु से उन्हें यदि संसार से सर्वथा पृथक् माना जाय तो फिर यह तो मानना ही पड़ेगा कि संसार में जो कुछ है, सभी भगवान का है; क्योंकि वे ‘सर्वलोकमहेश्वर’[3] हैं और संसार में जितने भी पुरुष हैं, सबके देह में ‘देही’ या आत्मा रूप से वे ही स्वयं विराजित हैं। [4]इस दृष्टि से समस्त संसार के सम्पूर्ण पदार्थों के स्वत्व पर अधिकार करने से और समस्त स्त्रियों के पति होने से भी उन पर न परधनापहरण का दोष आ सकता है और न औपपत्यका ही। परंतु यहाँ सर्वलोकमहेश्वर और विश्वात्मा में स्थित भगवान के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं है, यहाँ तो प्रश्र कर्ता महोदय विश्वात्मा और सर्वलोकमहेश्वर से भिन्न समझकर उन साकर- मगंलविग्रह भगवान के सम्बन्ध में पूछते हैं, जो धर्मसंस्थापनार्थ ही धरातल पर अवतीर्ण होते हैं। उनका कहना है कि ‘धर्मसंस्थापनार्थ अवतार ग्रहण करने वाले भगवान क्या ऐसा कोई भी कार्य कर सकते हैं जो स्वरूपतः धर्मविरुद्ध हो और जिससे शुभ आदर्श नष्ट होने के साथ ही धर्मस्थापना के स्थान पर धर्म की हानि होती हो?’ इसके उत्तर में यों तो यह कहना भी सर्वथा युक्तियुक्त और सत्य ही है कि भगवान पर माया-जगत् के धर्म का कोई बन्धन लागू नहीं पड़ता, वे सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं। वे जो कुछ करते हैं, वही उनका धर्म है और वे जो कुछ कहते हैं, वही शास्त्र है। |
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- ↑ ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि (गीता ७। १२)
अर्थात् सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, सबको तू मुझसे ही (उत्पन्न) जान - ↑ न च मां तानि कर्माणि निबध्रन्ति धनंजय। (गीता ९।९ )
अर्थात् हे अर्जुन ! वे कर्म मुझको नहीं बाँधते। - ↑ सर्वलोकमहेश्वरम् (गीता ५। २१)
- ↑ अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। (गीता १0। २0)
अर्जुन! सब भूतों के हृदय में आत्मारूप मैं ही स्थित हूँ।
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