श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अतएव माधुर्य ही प्रधान है। वैसे तो वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य भी माधुर्य के अनुगत ही है। उनके ऐश्वर्य का अणु-परमाणु भी माधुर्य से ही सिचिंत है। इसी से श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अन्य स्थलों के ऐश्वर्य की भाँति कदापि भयप्रद नहीं है। लोग भूल से ऐश्वर्य में ही भगवत्ता देरवते हैं; पर श्रीकृष्ण में ऐश्वर्य-लीला ऐसी माधुर्य-मण्डित है कि वह परम भगवत्ता का प्रकाश करती हुई ही भगवान को गौरव-गरिमाहीन, अपना ‘निज जन’ बना देती है। भक्त उनको अपना मान कर उनके चरणों में लुट पड़ता है, उन्हें आलिंगन करने लगता है। उनके हृदय से चिपट जाता है, उन्हें गोद में बैठा लेता है, स्वयं उनकी गोद में बैठ जाता है, उनके गलबैयाँ देकर चलता है, साथ खाता-पीता है, एक साथ विहार करता है और भगवान, सर्वगुण-गौरवमय होते हुए भी, यह सब सानन्द समुत्सुकता के साथ स्वीकार करते हैं- छल-कपट से नहीं, माया से नहीं, अभिनय के रूप में नहीं, पर स्वयं ऐसे ही बनकर प्रेम रस का मधुर आस्वादन करने-कराने के लिए! आज इन्हीं समग्र भगवान, ‘स्वयं भगवान’ श्रीकृष्ण का प्राकट्य-महोत्सव है। यह स्मरण रखिये कि भगवान श्रीकृष्ण कर्मवश जन्म लेने वाले पाच्चभौतिक देहधारी जीव नहीं हैं। ये नित्य सत्य सनातन सच्चिदानन्दस्वरूप हैं। देह-देही-भेद से रहित हैं परस्पर-विरुद्ध -धर्माश्रय होने के कारण इनमें जागतिक भावों के दर्शन होते हैं, पर इनके वे जागतिक भाव भी वस्तुतः चिदानन्दमय भगवत्स्वरूप ही है। आप जिस रूप में इनको देरवना चाहें, देरव सकते हैं; इनसे सम्बन्ध स्थापन करना चाहें, कर सकते हैं। ये सभी सम्बन्ध स्वीकार करने को प्रस्तुत हैं पर सम्बन्ध होना चाहिये अनन्य, अव्यभिचारी, पूर्ण तथा आत्मा का, बाहर का नहीं। ये हमारे हैं, हम इनके हैं। भगवान, सब में समान होते हुए भी जो इन्हे प्रेम से भजता है, उसको अपने हृदय में बसा लेते हैं और स्वयं उसके हृदय में बसे रहते हैं- ‘मयि ते तेषु चाप्यहम’[1]। इतना ही नहीं, वे स्वयं उसका हृदय बन जाते हैं और उसे अपना हृदय बना लेते हैं। श्रीमद्भागवत के वचन हैं-
‘वे (प्रेमी) साधु मेरे हृदय हैं और मैं उन साधुओं का हृदय हूँ। वे मेरे अतिरिक्त किसी को नहीं जानते तो मैं उनके सिवा किसी को नहीं जानता।’[3] |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ गीता
- ↑ ९। ४। ६७
- ↑ यहाँ मैंने यह जो कुछ कहा है, वह अनुभवी वैष्णव महात्माओं का प्रसाद मात्र है। मैं तो स्वरूप-तत्त्व से सर्वथा अनभिज्ञ एक दीन-हीन-पामर प्राणी हूँ। उनके उद्रारों को पूरा प्रकट भी नहीं कर सकता।
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