श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाभाव की एक झाँकीश्यामसुन्दर के समीप जाकर उनका प्रत्यक्ष सेवानन्द प्राप्त करो।’ इस बात को सुनकर मणिमन्जरी ने उक्त सखी से कहा— ‘बहिन! कल्याणमयी श्रीराधा श्रीश्यामसुन्दर के साथ मिलकर जो सुख प्राप्त करती हैं, वही मेरे लिये मेरे अपने मिलन से अनन्तगुना अधिक सुख है। मैं अपने लिये दूसरे किसी सुख की कभी कल्पना ही नहीं कर सकती। तुम मुझे क्यों भुलाती हो? मुझे तो तुम भी यही वरदान दो कि मैं श्रीराधा-माधव के मिलन-सुख को ही नित्य-निरन्तर अपना परम सुख मानूँ और उसी पवित्र कार्य में अपने जीवन का एक-एक क्षण लगाकर अनिर्वचनीय और अचिन्त्य सुख प्राप्त करती रहूँ।’ यही प्रेम की महिमा है। इसी से इस पवित्र सर्वत्यागमय प्रेम की तुलना में इन्द्र का पद, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम साम्राज्य, पाताल का राज्य, योगसिद्धि एवं मोक्ष पर्यन्त सभी नगण्य हैं; क्योंकि उन सभी में ‘स्व-सुख-कामना’ का किसी-न-किसी अंश में अस्तित्व है, पूर्ण त्याग नहीं है। इस पूर्ण त्याग को ही आदर्श मानने वाला मानव त्याग के मार्ग में अग्रसर होकर परम प्रेम और परमानन्द को प्राप्त करके धन्य होता है! घर, पड़ोस, गाँव, देश, विश्व, विश्वात्मा और सबके मूल स्वरूप सर्वाधार, सर्वमय, सर्वातीत भगावन् के लिये जितना-जितना ही त्याग होता है, उतना-उतना ही भोकासक्ति, प्राणिपदार्थों की ममता, विषयकामना, मिथ्या अहंकार का नाश होकर दिव्य प्रेम प्राप्त होता है और उतना-उतना ही दिव्य मधुर अनन्त आनन्द बढ़ता है। इसी से भक्तों ने प्रेम को पुरुषार्थ-चतुष्टय के मोक्ष से भी उच्चतम पन्चम पुरुषार्थ बताया है। मानव के लिये इसी से परम कर्तव्य है— सर्वत्याग। त्याग का अनिवार्य फल है— त्यागमय अनन्यप्रेम और त्यागमय प्रेम का ही परिणाम है— विशुद्धतम दिव्य आनन्द! |
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