श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
</center> भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधाजी के सम्बन्ध में प्राचीन शास्त्रों में तथा अनुभवी संतों-भक्तों की मंगलमयी वाणी में बहुत कुछ लिखा-कहा गया है। संयम-नियम तथा श्रद्धा-विश्वास का अवलम्बन करके यदि उसका अध्ययन-मनन किया जाय तो श्रीराधा-माधव के स्वरूप की पहले धारणा, पश्चात अनुभूति हो सकती है और उनकी उपासना करके हम अपना जीवन सफल कर सकते हैं। भगवत्प्राप्ति या आत्मसाक्षात्कार और लौकिक अभ्युदय-सभी की सिद्धि के लिये त्याग की आवश्यकता है। त्याग के बिना कभी सफलता नहीं मिलती। त्यागी के पास ‘सिद्धि’ अपने-आप दौड़ी जाती है और ‘भोगी’ का जीवन निश्चित असफल होता है। त्याग में शान्ति-सुख है, भोग में अशान्ति-दुःख है। श्रीराधा के भाव, चरित्र, विचार तथा क्रिया का अध्ययन करने से हमें त्याग की सफल शिक्षा मिलती है। प्रेम के बिना साध्य वस्तु की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती और त्याग के बिना प्रेम की कल्पना भी बिडम्बना है। प्रेम में ग्रहण नहीं है, त्याग है; वह लेन-देन का व्यापार नहीं है समर्पण है। प्रेम देना जानता है, लेना नहीं। इसीलिये कहा गया है कि जहाँ प्रेम के लिये ही प्रेम है, वहाँ ‘प्रेम’ है; जहाँ कुछ भी पाने के लिये प्रेम है, वहाँ वह प्रेम नहीं है, ‘काम’ है। प्रेम ‘निर्मल भास्कर’ है, काम ‘मलयुक्त अन्धकार’ है। फिर चाहे ‘प्रेम’ का नाम ‘काम’ हो या ‘काम’ का नाम ‘प्रेम’ हो। नाम में कोई तत्त्व नहीं है, तत्त्व है भाव में। गोपांगनाओं के और श्रीराधा के प्रेम का नाम काम है, पर वह ‘काम’ है केवल प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने की अनन्य कामना, जिसका सर्वत्याग की भूमिका में ही उदय होता है। |
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