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श्रीराधामाधव का दिव्य स्वरूप
सं. 2026 वि. के श्रीराधाष्टमी-महोतसव पर प्रवचन
सत, चित, आनन्द- ये तीनों शक्तियाँ भगवान ये अभिन्न और एक ही शक्ति के तीन रूप् हैं। इनमें ‘आनन्द’ चित-स्वरूपा शक्ति का प्रत्यक्ष रूप है। आनन्द ‘ह्लादिनी’, सत् ‘संधिनी’ और चित् ‘संवित’ शक्ति है। अन्तरंगा चिच्छक्ति- आनन्द ही ह्लादिनी श्रीराधा हैं। ये राधिका श्रीकृष्ण की सर्वथा अभिन्न नित्य स्वरूपाशक्ति हैं। मूर्तिमती ह्लादिनी शक्ति नित्य आनन्दकार, आनन्दयोनि तथा आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण को अनिर्वचनीय मधुर दिव्य आनन्द का आस्वादन करती हैं और उनके आनन्द से स्वयं भी अचिन्त्य दिव्य सुख का आस्वादन करती हैं।
श्रीकृष्ण श्रीराधाजी से नित्य अभिन्न तथा सर्वथा एक होते हुए ही ‘आनन्दब्रह्म’ के प्रतिष्ठास्वरूप (ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम) परिपूर्णतम रसराज या अचिन्त्य रस ब्रह्मतत्त्व हैं। इन श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रूप में ही वस्तुतः विशुद्ध अनन्य ‘रस’ और ‘प्रेम’ हैं। ये इस जड-प्राकृत जगत से सर्वथा अतीत हैं। श्रीकृष्ण सर्वेश्वर्यरूप ‘स्वयं-भगवान’ हैं। उनमें जैसे दिव्य अनन्त ऐश्वर्य का प्रकाश है, वैसे ही उनकी अन्तरंगा स्वरूपाशक्ति ह्लादिनी श्रीराधाजी में भी है।
जैसे भगवान श्रीकृष्ण का असमोदर्ध्वे माधुर्य अनन्त ऐश्वर्य से समावृत है, वैसे ही श्रीराधाजी के श्रीकृष्णाकर्षी परम मधुर स्वरूप पर भी ऐश्वर्य का दिव्य आवरण है। पर जहाँ अनावृत लीला है, वहाँ भगवान सर्वाकर्षकत्वादि स्वरूप भूत गुणों से सम्पन्न, मधुरतम अप्राकृत विचित्र लीला-विहार-परायण हैं। यह सर्वापेक्षा अन्तरंग रसराज-स्वरूप ही ‘रसतत्त्व है और इस रसतत्त्व को नित्य नव-नव रूप में आनन्द प्रदान करने वाली अप्राकृत परमाह्लादस्वरूपा श्रीराधा ही ‘प्रेमतत्त्व’ हैं। ये नित्य एक ही दो रूपों में लीलायमान, नित्य परस्पर आकृष्ट हैं।
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