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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाभाव की एक झाँकी
भगवान् (श्रीकपिलदेव) कहते हैं— ‘मेरे प्रेमी भक्त—मेरी सेवा को छोड़कर- सालोक्य (भगवान् के नित्यधाम में निवास), सार्ष्टि (भगवान् के समान ऐश्वर्य-भोग), सामीप्य (भगवान् के समीप रहना), सारूप्य (भगवान् के समान रूप प्राप्त करना) और एकत्व (भगवान् में मिल जाना— ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाना)— ये (पाँच प्रकार की दुर्लभ मुक्तियाँ) दिये जाने पर भी नहीं लेते।’ भगवत्प्रेमियों की पवित्र प्रेमाग्नि में भोग-मोक्ष की सारी कामनाएँ, संसार की सारी आसक्तियाँ और ममताएँ सर्वथा जलकर भस्म हो जाती हैं। उनके द्वारा सर्वस्व का त्याग सहज स्वाभाविक होता है। अपने प्राणप्रियतम प्रभु को समस्त आचार अर्पण करके वे केवल नित्य-निरन्तर उनके मधुर स्मरण को ही अपना जीवन बना लेते हैं। उनका वह पवित्र प्रेम सदा बढ़ता रहता है’ क्योंकि वह न कामनापूर्ति के लिये होता है न गुणजनित होता है। उसका तार कभी टूटता ही नहीं, सूक्ष्मतर रूप से नित्य-निरन्तर उसकी अनुभूति होती रहती है और वह प्रतिक्षण नित्य-नूतन मधुर रूप से बढ़ता ही रहता है। उसका न वाणी से प्रकाश हो सकता है, न किसी चेष्टा से ही उसे दूसरे को बताया जा सकता है— अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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